महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 115 श्लोक 1-18
पञ्चदशाधिकशततम (115) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
- राजा तथा राजसेवकों के आवश्यक गुण
युधिष्ठिर बोले- ‘परम बुद्धिमान पितामह ! मेरे मन में यह एक महान संशय बना हुआ है। राजन ! आप मेरे उस संदेह का निवारण करें, क्योंकि आप हमारे वंश के प्रवर्तक है। तात ! आपने दुरात्मा और दुराचारी पुरुषों के बोलचाल की चर्चा की है; इसीलिये मैं आपसे कुछ निवेदन कर रहा हूँ। आप मुझे ऐसा कोई उपाय बताइये जो हमारे इस राज्यतन्त्र के लिये हितकारक, कुल के लिये सुखदायक, वर्तमान और भविष्य मे भी कल्याण की वृद्धि करने वाला, पुत्र और पौत्रों की परम्परा के लिये हितकर, राष्ट्र की उन्नति करने वाला तथा अन्न, जल और शरीर के लिये भी लाभकारी हो। जो राजा अपने राज्य पर अभिशिक्त हो देश में मित्रों से घिरा हुआ रहता है, तथा जो हितैषी सुहदों से भी सम्पन्न है, वह किस प्रकार अपनी प्रजा को प्रसन्न रखे ? जो असद वस्तुओं के संग्रह में अनुरक्त है, स्नेह और राग के वशीभूत हो गया है और इन्द्रियों पर वश न चलने के कारण सज्जन बनने की चेष्टा नहीं करता, उस राजा के उत्तम कुल में उत्पन्न हुए समस्त सेवक भी विपरीत गुण वाले हो जाते है। ऐसी दशा में सेवकों के रखने का जो फल धन की वृद्धि आदि हैं, उससे वह राजा सर्वथा वंचित रह जाता है। मेरे इस संशय का निवारण करके आप दुर्बोध राजधर्मों का वर्णन कीजिय; क्योंकि आप बुद्धि में साक्षात बृहस्पति के समान हैं। पुरुषसिंह ! हमारे कुल के हित में तत्पर रहने वाले आप ही हमें ऐसा उपदेश दे सकते हैं। दूसरे हमारे हितैषी महाज्ञानी विदुरजी हैं, जो हमें सर्वदा सदुपदेश दिया करते हैं। आपके मुख से कुल के लिये हितकारी तथा राज्य के लिये कल्याणकारी उपदेश सुनकर मैं अक्षय अमृत से तृप्त होने के समान सुख से सोउंगा। कैसे सर्वगुण सम्पन्न सेवक राजा के निकट रहने चाहिये और किस कुल में उत्पन्न हुए कैसे सैनिकों के साथ राजा को युद्ध की यात्रा करनी चाहिये? सेवकों के बिना अकेला राजा राज्य की रक्षा नहीं कर सकता; क्योंकि उत्तम कुल में उत्पन्न सभी लोग इस राज्य की अभिलाषा करते हैं। भीष्म जी ने कहा- तात भरतनन्दन ! कोई भी सहायकों के बिना अकेले राज्य नहीं चला सकता। राज्य ही क्या? सहायकों के बिना किसी भी अर्थ की प्राप्ति नही होती। यदि प्राप्ति हो भी गयी तो सदा उसकी रक्षा असम्भव हो जाती हैं (अत: सेवकों या सहायकों का होना आवश्यक है)। जिसके सभी सेवक ज्ञान-विज्ञान में कुशल, हितैषी, कुलीन और स्नेही हों, वही राजा राज्य का फल भोग सकता है। जिसके मन्त्री कुलीन, धन के लोभ से फोड़े न जा सकने वाला, सदा राजा के साथ रहने वाला, उन्हें अच्छी बुद्धि देने वाले, सत्पुरुष, सम्बन्ध-ज्ञानकुशल, भविष्य का भलीभांति प्रबन्ध करने वाले, समय के ज्ञान में निपुण तथा बीती हुई बात के लिये शोक न करने वाले हों, वही राजा राज्य के फल का भागी होता है। जिसके सहायक राजा के सुख में सुख और दु:ख में दु:ख मानते हों, सदा उसका प्रिय करने वाले हों और राजकीय धन कैसे बढ़े- इसकी चिन्ता में तत्पर तथा सत्यवादी हों, वह राजा राज्य का फल पाता है।
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