महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 124 श्लोक 61-70
चतुविंशत्यधिकशततम (124) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाप्राज्ञ ! धर्म, सत्य, सदाचार, बल और मैं (लक्ष्मी)-ये सब सदा शील के ही आधार पर रहते हैं-शील ही इन सबकी जड़ हैं। इसमें संशय नहीं है। भीष्मजी कहते हैं- ‘युधिष्ठिर ! यों कहकर लक्ष्मी तथा वे शील आदि समस्त सद्गुण इन्द्र के पास चले गये। इस कथा को सुनकर दुर्योधन ने पुन: अपने पिता से कहा-‘कौरवनन्दन ! मैं शील का तत्व जानना चाहता हूं। शील जिस प्रकार प्राप्त हो सके, वह उपाय भी मुझे बताइयें।
धृतराष्ट्र उवाच
धृतराष्ट ने कहा-नरेश्वर ! शील का स्वरुप और उसे पाने का उपाय-ये दोनों बातें महात्मा प्रह्लाद ने पहले ही बतायी हैं। मैं संक्षेप से शील की प्राप्ति का उपायमात्र बता रहा हूं, ध्यान देकर सुनो। मन, वाणी और क्रियाद्वारा किसी भी प्राणी से द्रोह न करना, सबपर दया करना और यथाशक्ति दान देना-यह शील कहलाता हैं, जिसकी सब लोग प्रशंसा करते हैं। अपना जो भी पुरुषार्थ और कर्म दूसरों के लिये हितकर न हो अथवा जिसे करने में संकोच का अनुभव होता हो, उसे किसी तरह नहीं करना चाहिये। जो कर्म जिस प्रकार करने से भरी सभा में मनुष्य की प्रशंसा हो, उसे उसी प्रकार करना चाहिये। कुरुश्रेष्ठ ! यह तुम्हें थोड़े मे शील का स्वरुप बताया गया है। तात ! नरेश्वर ! यद्यपि कहीं-कहीं शीलहीन मनुष्य भी राजलक्ष्मी को प्राप्त कर लेते हैं, तथापि वे चिरकाल तक उसका उपभोग नहीं कर पाते और जड़मुलसहित नष्ट हो जाते हैं। बेटा ! यदि तुम युधिष्ठिर से भी अच्छी सम्पति प्राप्त करना चाहो तो इस उपदेश को यथार्थ रुप से समझकर शीलवान् बनो।
भीष्म उवाच
भीष्मजी कहते हैं-कुन्तीनन्दन ! राजा धृतराष्ट्र ने अपने पुत्र को यह उपदेश दिया था। तुम भी इसका आचरण करो, इससे तुम्हें भी वही फल प्राप्त होगा।।
« पीछे | आगे » |