महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 128 श्लोक 1-14
अष्टाविंशत्यधिकशततम (128) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
- तनु मुनि का राजा वीरद्युम्न को आशा के स्वरुप का परिचय देना और ॠषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना
राजा ने कहा- मुने ! मैं सम्पूर्ण दिशाओं में विख्यात वीरद्युम्न नामक राजा हूं और खोये हुए अपने पुत्र भूरिद्युम्न की खोज करने के लिये वन में आया हूं। निष्पाप विप्रवर ! मेरे एक ही वह पुत्र था। वह भी बालक ही था। इस वन में आने पर वह कहीं दिखायी नहीं दे रहा हैं, उसी को खोजने के लिये मैं चारों ओर विचर रहा हूं। ॠषभ कहते हैं-राजन् ! राजा के ऐसा कहने पर वे मुनि नीचे मुंह किये चुपचाप बैठे ही रह गये। राजा को कुछ उतर न दे सके। राजेन्द्र ! पूर्वकाल में कभी उसी राजा ने उन्हीं ॠषि का विशेष आदर नहीं किया था।उनकी आशा भंग कर दी थी। इससे वे मुनि’मैं किसी प्रकार भी किसी राजा या दूसरे वर्ण के लोगों का दिया हुआ दान नहीं ग्रहण करुंगा’ ऐसा निश्चय करके दीर्घकालीन तपस्या में लग गये थे। बहुतकाल तक रहनेवाली आशा मुर्ख मनुष्य को ही उद्यमशील बनाती हैं। मैं उसे दूर कर दूंगा। ऐसा निश्चय करके वे तपस्या में स्थिर हो गये थे। इधर वीरद्युम्न ने उन मुनिश्रेष्ठ से पुन: प्रश्न किया। राजा बोले-विप्रवर ! आप धर्म और अर्थ के ज्ञाता हैं, अत: यह बताने की कृपा करें कि आशा से बढ़कर दुर्बलता क्या है? और इस पृथ्वीपर सबसे दुर्लभ क्या है? तब उन दुर्बल शरीरवाले पूज्यपाद ॠषि ने पहले की सारी बातों को याद करके राजा को भी उनका स्मरण दिलाते हुए-से इस प्रकार कहा। ॠषि बोले-नरेश्वर ! आशा या आशावान् की दुर्बलता के समान और किसी की दुर्बलता नहीं है।जिस वस्तु की आशाकी जाती है, उसकी दुर्लभता के कारण ही मैंने बहुत-से राजाओं के यहां याचना की हे। राजा ने कहा- ब्रह्मन् ! मैंने आपके कहने पर यह अच्छी तरह समझ लिया कि जो आशा से बंधा हुआ है, वह दुर्बल है और जिसने आशा को जीत लिया है, वह पुष्ट है। द्विजश्रेष्ठ ! आपकी इस बात को भी मैंने वेदवाक्य की भांति ग्रहण किया कि जिस वस्तु की आशा की जाती हैं, वह अत्यन्त दुर्लभ होती है। महाप्राज्ञ ! मुने ! किंतु मेरे मन में एक संशय हैं, जिसे पूछ रहा हूं। आप उसे यथार्थरुप से बताने की कृपा करें। मुनिश्रेष्ठ ! यदि कोई वस्तु आपके लिये गोपनीय या छिपानेयोग्य न हो तो आप यह बतावे कि आपसे भी बढ़कर अत्यन्त दुर्बल वस्तु क्या है? दुर्बल शरीरवाले मुनि ने कहा- तात ! जो याचक धैर्य धारण कर सके अर्थात् किसी वस्तु की आवश्यकता होने पर भी उसके लिये किसी से याचना न करे, वह दुर्लभ हैं एवं जो याचना करनेवाले याचक की अवहेलना न करे-आदरपूर्वक उसकी इच्छा पूर्ण करे, ऐसा पुरुष संसार में अत्यन्त दुर्लभ है। जब मनुष्य सत्कार करके याचक की आशा दिलाकर भी उसका शक्ति के अनुसार यथायोग्य उपकार नहीं करता, उस स्थिति में सम्पूर्ण भूतों के मन में जो आशा होती है, वह मुझसे भी अत्यन्त कृश होती है।
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