महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 136 श्लोक 1-11
षट्त्रिंशदधिकशततम (136) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
- राजा किसका धन ले और किसका न ले तथा किसके साथ कैसा बर्ताव करे– इसका विचार
भीष्म जी कहते हैं–युधिष्ठिर! जिस मार्ग या उपाय से राजा अपना खजाना भरता है, उसके विषय में प्राचीन इतिहास के जानकार लोग ब्रह्माजी की कही हुई कुछ गाथाएं कहा करते हैं। राजा को यज्ञानुष्ठान करने वाले द्विजों का धन नहीं लेना चाहिए। इसी प्रकार उसे देवसम्पति में भी हाथ नहीं लगाना चाहिए। वह लुटेरों तथा अकर्मण्य मनुष्यों के धनका अपहरण कर सकता हैं। भरतनन्दन! ये समस्त प्रजाएं क्षत्रियों की हैं। राज्यभोग भी क्षत्रियों के ही हैं और सारा धन भी उन्ही का है, दूसरे का नहीं है; किंतु वह धन उसकी सेना के लिए है या यज्ञानुष्ठान के लिये। राजन ! जो खाने योग्य नहीं हैं, उन औषधियों या वृक्षों को काटकर मनुष्य उनके दारा खानेयोग्य औषधियों को पकातें हैं। इसी प्रकार जो देवताओं, पितरों और मनुष्यों का हविष्य के द्वारा पूजन नहीं करता है, उसके धनको ऐसे धर्मज्ञ पुरूषों ने व्यर्थ बताया हैं। अत: धर्मात्मा राजा ऐसे धन को छीन ले और उसके द्वारा प्रजा का पालन करे, किंतु वैसे धन से राजा आपना कोश न भरें। जो राजा दुष्टों से धन छीनकर उसे श्रेष्ठ पुरूषों में बांट देता है, वह अपने-आपको सेतु बनाकर उन सबको पार कर देता है । उसे सम्पूर्ण धर्मों का ज्ञाता ही मानना चाहिये। धर्मज्ञ राजा अपनी शक्ति के अनुसार उसी-उसी तरह लोकों पर विजय प्राप्त करें, जैसे उद्भिज्ज जन्तु (वृक्ष आदि) अपनी शक्ति के अनुसार आगे बढ़ते हैं तथा जैसे वज्रकीट आदि क्षुद्र जीव बिना ही निमित के उत्पन्न हो जाते हैं, वैसे ही बिना ही कारण के यज्ञहीन कर्तव्यविरोधी मनुष्य भी राज्य में उत्पन्न हो जाते हैं। अत: राजा को चाहिये कि मच्छर, डांस और चींटी आदि कीटों के साथ जैसा बर्ताव किया जाता है, वही बर्ताव उन सत्कर्म विरोधियों के साथ करे, जिससे धर्म का प्रचार हो । जिस प्रकार अकस्मात् पृथ्वी की धूल को लेकर सिल पर पीसा जाय तो वह और भी महीन ही होती है, उसी प्रकार विचार करने से धर्म का स्वरूप उत्तरोतर सूक्ष्म जान पड़ता है।
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