महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 180-195

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अष्टात्रिंशदधिकशततम (138) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टात्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 180-195 का हिन्दी अनुवाद

‘धन और रत्‍नों की भांति अपने आपको शत्रु के हाथ में दे देना अभिष्‍ट नहीं है। धन और स्‍त्री के द्वारा अर्थात् उनका त्‍याग करके भी सर्वदा अपनी रक्षा करनी चाहिये। ‘जो आत्‍मरक्षा में तत्‍पर हैं और भलीभांति परीक्षापूर्वक निर्णय करके काम करते हैं, ऐसे पुरूषों को अपने ही दोष से उत्‍पन्‍न होने वाली आपत्तियॉ नहीं प्राप्‍त होती हैं। ‘जो दुर्बल प्राणी अपने बलवान शत्रुओं को अच्‍छी तरह जानते हैं, उनकी शास्‍त्र के अर्थज्ञानद्वारा स्थिर हुई बुद्धि कभी विचलित नहीं होती’। पलित ने जब इस प्रकार स्‍पष्‍ट रूप से कड़ी फटकार सुनायी, तब बिलाव ने लज्जित होकर पुन: उस चूहे से इस प्रकार कहा । लोमश बोला – भाई! मैं तुमसे सत्‍य की शपथ खाकर कहता हूं, मित्र से द्रोह करना तो बड़ी घृणित बात है। तुम जो सदा मेरे हित में तत्‍पर रहते हो, इसे मैं तुम्‍हारी उत्‍तम बुद्धि का ही परिणाम स‍मझता हूं। श्रेष्‍ठ पुरूष! तुमने तो यथार्थ रूप से नीति-शास्‍त्र का सार ही बता दिया। मुझसे तुम्‍हारा विचार पूरा-पूरा मिलता है। मित्रवर! किंतु तुम मुझे गलत न समझो। मेरा भाव तुमसे विपरीत नहीं है। तुमने मुझे प्राणदान दिया है। इसी से मुझपर तुम्‍हारे सौहार्द का प्रभाव पड़ा। मैं धर्म को जानता हूं, गुणों का मूल्‍य समझता हूं, विशेषत: तुम्‍हारे प्रति कृतज्ञ हूं, मित्रवत्‍सल हूं ओर सबसे बड़ी बात यह है कि मैं तुम्‍हारा भक्‍त हो गया हूं; अत: मेरे अच्‍छे मित्र! तुम फिर मेरे साथ ऐसा ही बर्ताव करा-मेलजोल बढा़कर मेरे साथ घूमो–फिरो। यदि तुम कह दो तो मैं बन्‍धु–बान्‍धवोंसहित तुम्‍हारे लिये अपने प्राण भी त्‍याग दे सकता हूं। विद्वानों ने मुझ-जैसे मनस्‍वी पुरूषों पर सदा विश्‍वास ही किया और देखा है। अत: धर्म के तत्‍तव को जानने वाले पलित! तुम्‍हें मुझपर संदेह नहीं करना चाहिये। बिलाव के द्वारा इस प्रकार की स्‍तुति की जाने पर भी चूहा अपने मन से गम्‍भीर भाव ही धारण किये रहा। उसने मार्जारसे पुन: इस प्रकार कहा-‘भैया! तुम वास्‍तव में बड़े साधु हो । यह बात मैंने तुम्‍हारे विषय में सुन रक्‍खी है। उससे मुझे प्रसन्‍नता भी है; परंतु मैं तुम पर विश्‍वास नहीं कर सकता। तुम मेरी कितनी ही स्‍तुति क्‍यों न करो। मेरे लिये कितनी ही धनराशि क्‍यों न लुटा दो; परंतु अब मैं तुम्‍हारे साथ मिल नहीं सकता। सखे! बुद्धिमान एवं विद्वान पुरूष बिना किसी विशेष कारण के अपने शत्रु के वश में नहीं जाते। ‘इस विषय में शुक्राचार्य नें दो गाथाएं कही हैं। उन्‍हें ध्‍यान देकर सुनो। जब अपने और शत्रु पर एक–सी विपत्ति आयी हो, तब निर्बल को सबल शत्रु के साथ मेल करके बड़ी सावधानी और युक्ति से अपना काम निकालना चाहिये और जब काम हो जाय, तो फिर उसे शत्रु पर विश्‍वास नहीं करना चाहिये ( यह प‍हली गाथा है)’। ‘(दूसरी गाथा यों हैं ) जो विश्‍वासपात्र न हो, उस पर विश्‍वास न करे तथा जो विश्‍वासपात्र हो, उस पर भी अधिक विश्‍वास न करे। अपने प्रति सदा दूसरों का विश्‍वास उत्‍पन्‍न करे; किंतु स्‍वयं दूसरों का विश्‍वास न करें। ‘इसलिये सभी अवस्‍थाओं में अपने जीवन की रक्षा करे; क्‍योंकि जीवित रहने पर पुरूष को धन और संतान-सभी मिल जाते है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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