महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 139 श्लोक 75-91

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एकोनचत्‍वारिंशदधिकशततम (139) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 75-91 का हिन्दी अनुवाद

ब्रह्मदत्‍त ने कहा – पूजनी! अविश्‍वास करने से तो मनुष्‍य संसार में अपने अभीष्‍ट पदार्थों को कभी नहीं प्राप्‍त कर सकता और न किसी कार्य के लिये कोई चेष्‍टा ही कर सकता है। यदि मन में एक पक्ष से सदा भय बना रहे तो मनुष्‍य मृतकतुल्‍य हो जायंगे- उनका जीवन ही मिट्टीहो जायगा। पूजनी ने कहा- राजन्! जिसके दोनों पैरों में घाव हो गया हो; फिर भी वह उन पैरों से ही चलता रहे तो कितना ही बचा–बचाकर क्‍यों न चले; यहां दौड़ते हुए उन पैरों में पुन: घाव होते ही रहेंगे। जो मनुष्‍य अपने रोगी नेत्रों से हवा की ओर रूख करके देखता है, उसके उन नेत्रों में वायु के कारण अवश्‍य ही बहुत पीड़ा बढ़ जाती है। जो अपनी शक्ति को न समझ कर मोहवश दुर्गम मार्गपर चल देता है, उसका जीवन वहीं समाप्‍त हो जाता है। जो किसान वर्षा के समय को विचार न करके खेत जोतता है, उसका पुरूषार्थ व्‍यर्थ जाता है; और उस जुताई से उसको अनाज नहीं मिल पाता। जो प्रतिदिन तीता, कसैला, स्‍वादिष्‍ट अथवा मधुर, जैसा भी हो, हितकर भेाजन करता है, वही अन्‍न उसके लिये अमृत के समान लाभकारी होता है। परंतु जो परिणाम के विचार किये बिना ही मोहवश पथ्‍य छो़ड़कर अपथ्‍य भोजन करता है, उसके जीवन का वहीं अंत हो जाता है। दैव ओर पुरूषार्थ दोनों एक-दूसरे के सहारे रहते हैं, परंतु उदार विचार वाले पुरूष सर्वदा शुभ कर्म करते हैं और नपुंसक दैव के भरोसे पड़े रहते हैं। कठोर अथवा कोमल, जो अपने लिये हितकर हो, वह कर्म करते रहना चाहिये। जो कर्म को छोड़ बैठता है, वह निर्धन होकर सदा अनर्थों का शिकार बना रहता है।अत: काल, दैव और स्‍वभाव आदि सारे पदार्थों का भरोसा छोड़कार पराक्रम ही करना चाहिये। मनुष्‍य को सर्वस्‍व की बाजी लगाकर भी अपने हित का साधन ही करना चाहिये। विद्या, शूरवीरता, दक्षता, बल और पांचवां धैर्य-ये पांच मनुष्‍य के स्‍वाभाविक मित्र बताये गये हैं। विद्वान् पुरूष इनके द्वारा ही इस जगत् में सारे कार्य करते हैं। घर, तांबा आदि धातु, खेत, स्‍त्री और सुहृद्जन-ये उपमित्र बताये गये हैं । इन्‍हें मनुष्‍य सर्वत्र पा सकता है। विद्वान् पुरूष सर्वत्र आनन्‍द में रहता है और सर्वत्र उसकी शोभा होती है। उसे कोई डराता नहीं है और किसी के डराने पर भी वह डरता नहीं है। बुद्धिमान के पास थोड़ा–सा धन हो तो वह भी सदा बढ़ता रहता है । वह दक्षतापूर्वक काम करते हुए संयम के दारा प्रतिष्ठित होता है। घर की आसक्ति में बंधें हुए मन्‍दबुद्धि मनुष्‍यों के मांसों को कुटिल स्‍त्री खा जाती है अर्थात् उसे सुखा डालती है, जैसे केकड़े की मादा को उसकी संताने ही नष्‍ट कर देती है। बुद्धि के विपरित हो जाने से दूसरे–दूसरे बहुतेरे मनुष्‍य घर, खेत, मित्र ओैर अपने देश आदि की चिन्‍ता से ग्रस्‍त होकर सदा दुखी बने रहते है। अपना जन्‍मस्‍थान भी यदि रोग और दुर्भिक्ष से पीडित हो तो आत्‍मरक्षा के लिये वहां से हट जाना या अन्‍यत्र निवास के लिये चले जाना चाहिये। यदि वहां रहना ही हो तो सदा सम्‍मानित होकर रहे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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