महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 141 श्लोक 68-78

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

एकचत्‍वारिंशदधिकशततम (141) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 68-78 का हिन्दी अनुवाद

चाण्‍डाल ने कहा- मुने! इसे खाकर कोई बहुत बड़ी आयु नहीं प्राप्‍त कर सकता। न तो इससे प्राणशक्ति प्राप्‍त होती है और न अमृत के समान तृप्ति ही होती है; अत: आप कोई दूसरी भिक्षा मांगिये। कुत्‍ते का मांस खाने की ओर आप का मन नहीं जाना चाहिये। कुत्‍ता द्विजों के लिये अभक्ष्‍य है। विश्‍वामित्र बोले- श्‍वपाक! सारे देश में अकाल पड़ा है; अत: दूसरा कोई मांस सुलभ नहीं होगा, यह मेरी दृढ़ मान्‍यता है। मेरे पास धन नहीं है कि मैं भेाज्‍य पदार्थ खरीद सकूं, इधर भूख से मेरा बुरा हाल है। मैं निराश्रय तथा निराश हूं। मैं समझता हूं कि मुझे इस कुत्‍ते के मांस में ही षड्रस भेाजन का आनन्‍द भलीभॉति प्राप्‍त होगा। चाण्‍डाल ने कहा- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्‍य के लिये पांच नखोंवाले पांच प्रकार के प्राणी आपत्तिकाल में भक्ष्‍य बताये गये हैं। यदि आप शास्‍त्र को प्रमाण मानते हैं तो अभक्ष्‍य पदार्थ की ओर मन न ले जाइये। विश्‍वामित्र बोले- भूखे हुए महर्षि अगस्‍त्‍य ने वातापि नामक असुर को खा लिया था। मैं तो क्षुधा के कारण भारी आपत्ति में पड़ गया हूं; अत: यह कुत्‍ते की जांघ अवश्‍य खाऊंगा। चाण्‍डाल ने कहा—मुने! आप दूसरी भिक्षाले आइये। इसे ग्रहण करना आप के लिये उचित नहीं है। आपकी इच्‍छा हो तो यह कुत्‍ते की जांघ ले जाइये; परंतु मैं निश्चित रूप से कहता हूं कि आपको इसका भक्षण नहीं करना चाहिये। विश्‍वामित्र बोले- शिष्‍टपुरूष ही धर्म की प्रवृत्ति के कारण हैं। मै उन्‍हीं के आचार का अनुसरण करता हूं; अत: इस कुत्‍ते की जांघ को मैं पवित्र भोजन के समान ही भक्षणीय मानता हूं । चाण्‍डाल ने कहा- किसी असाधु पुरूष ने यदि कोई अनुचित कार्य किया हो तो वह सनातन धर्म नहीं माना जायेगा; अत: आप यहां न करने योग्‍य कर्म न कीजिये । कोई बहाना लेकर पाप करने पर उतारू न हो जाइये। विश्‍वामित्र बोले- कोई श्रेष्‍ठ ॠषि ऐसा कर्म नहीं कर सकता, जो पातक हो अ‍थवा जिसकी निन्‍दा की गयी हो। कुत्‍ते और मृग दोनों ही पशु होने के कारण मेरे मत में समान है; अत: मैं यह कुत्‍ते की जांघ अवश्‍य खाऊंगा। चाण्‍डाल ने कहा- महर्षि अगस्‍त्‍य ने ब्रह्मणों की रक्षा के लिये प्रार्थना की जाने पर वैसी अवस्‍था में वातापिका भक्षण रूप कार्य किया था (उनके वैसा करने से बहुत से ब्रह्मणों की रक्षा हो गयी; अन्‍यथा वह राक्षस उन सबको खा जाता; अत: महर्षि का वह कार्य धर्म ही था) धर्म वही है, जिसमें लेशमात्र भी पाप न हो। ब्राह्मण गुरूजन है; अत: सभी उपायों से उनकी एवं उनके धर्म की रक्षा करनी चाहिये। विश्‍वामित्र बोले- (यदि अगस्‍त्‍य ने ब्राह्मणों की रक्षा के लिये वह कार्य किया था तो मैं भी मित्र की रक्षा के लिये उसे करूंगा) यह ब्राह्मण का शरीर मेरा मित्र ही है। यही जगत् में मेरे लिये परम प्रिय और आदरणीय है। इसी को जीवित रखने के लिये मैं यह कुत्‍ते की जांघ ले जाना चाहता हूं; अत: ऐसे नृशंस कर्मों से मुझे तनिक भी भय नहीं होता है। चाण्‍डाल ने कहा- विद्वन्! अच्‍छे पुरूष अपने प्राणों का परित्‍याग भले ही कर दें, परंतु वे कभी अभक्ष्‍य–भक्षण का विचार नहीं करते हैं। इसी से वे अपनी सम्‍पूर्ण कामनाओं को प्राप्‍त कर लेते है; अत: आप भी भूख के साथ ही- उपवास द्वारा ही अपनी मन कामना की पूर्ति किजिये।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।