महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 143 श्लोक 1-18
त्रिचत्वारिंशदधिकशततम (143) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
- शरणागत की रक्षा करने के विषय मे एक बहेलिये और कपोत–कपोतीका प्रसंग, सर्दी से पीड़ित हुए बहुलिये का एक वृक्ष के नीचे जाकर सोना
युधिष्ठिरने पूछा- परम बुद्धिमान पितामह! आप सम्पूर्ण शास्त्रों के विशेषज्ञ हैं; अत: मुझे यह बताइये कि शरणागत रक्षा करने वाले प्राणी को किस धर्म की प्राप्ति होती है भीष्मजी ने कहा–महाराज! शरणागत की रक्षा करने में महान धर्म है। भरतश्रेष्ठ! तुम्हीं ऐसा प्रश्न पूछने के अधिकारी हो। राजन! शिबि आदि महात्मा राजाओं ने तो शरणागतों की रक्षा करके ही परम सिद्धि प्राप्त कर ली थी। यह भी सुना जाता है कि एक कबूतर ने शरण में आये हुए शत्रु का यथायोग्य सत्कार किया था और अपना मांस खाने के लिये उसको निमन्त्रित किया था। युधिष्ठिर ने पूछा– भरतनन्दन! प्राचीनकाल में कबूतर ने शरणागत शत्रु को किस प्रकार अपना मांस खिलाया और ऐसा करने से उसे कौन-सी सद्गगति प्राप्त हुई। भीष्मजी ने कहा- राजन्! वह दिव्य कथा सुनो, जो सब पापों का नाश करने वाली है। परशुरामजी ने राजा मुचुकुन्द को यह कथा सुनायी थी। पुरूषप्रवर कुन्तीनन्दन! पहले की बात है, राजा मुचुकुन्दन परशुराम जी को प्रणाम करके उनसे यहीं प्रश्न किसा था। नरेश्वर! तब परशुराम जी ने सुनने के लिये उत्सुक हुए मुचुकुन्द को कबूतर ने जिस प्रकार सिद्धि प्राप्ति की थी, वह कथा कह सुनायी। मुनि बोले–महाबाहो! यह कथा धर्मके निर्णय से युक्त तथा अर्थ और काम से सम्पन्न है। राजन्! तुम सावधान होकर मेरे मुख से इस कथा को सुनो। एक समय की बात है किसी महान वन में कोई भयंकर बहेलिया चारों ओर विचर रहा था। वह बडे़ खोटे आचार-विचार का था। पृथ्वी पर वह काल के समान जान पड़ता था। उसका सारा शरीर ‘काकोल’ जाति के कौओं के समान काला था। ऑखें लाल-लाल थीं। वह देखने पर काल-सा प्रतीत होता था। बड़ी-बड़ी पिंडलियॉ, छोटे-छोटे पैर, विशाल मुख और लंबी-सी ठोढी़–यही उसकी हुलिया थी । उसके न कोई सुहृद, न सम्बन्धी और न भाई-बन्धु ही थे। उसके भयानक क्रूर-कर्मं के कारण सबने उसे त्याग दिया था। वास्तव में जो पापाचारी हो, उसे विज्ञ पुरूषों को दूर से ही त्याग देना चाहिये। जो अपने आपको धोखा देता है, वह दूसरे का हितैषी कैसे हो सकता है ? जो मनुष्य क्रूर, दुरात्मा तथा दूसरे प्राणियों के प्राणों का अपहरण करने वाले होते है, उन्हें सर्पों के समान सभी जीवों की ओर से उद्वेग प्राप्त होता है। नरेश्वर! वह प्रतिदिन जाल लेकर वन में जाता और बहुत-से पक्षियों को मारकर उन्हें बाजार में बेच दिया करता था। यही उसका नित्य का काम था। इसी वृति से रहते हुए उस दुरात्मा को वहां दीर्घकाल व्यतीत हो गया, किंतु उसे अपने इस अधर्म का बोध नहीं हुआ। सदा अपनी स्त्री के साथ विहार करता हुआ वह बहेलिया दैवयोग से ऐसा मूढ़ हो गया था कि उसे दूसरी कोई वृति अच्छी ही नहीं लगती थी। तदनन्तर एक दिन वह वन में ही घूम रहा था कि चारों ओर से बडे़ जोर की आंधी उठी। वायु का प्रचण्ड वेग वहां के समस्त वृक्षों को धराशायी करता हुआ-सा जान पडा़।
« पीछे | आगे » |