महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 160 श्लोक 19-32
षष्टयधिकशततम (160) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
इन्द्रिय और मन को वश में रखने वाले पुरूष की कभी निंदा नहीं होती। उसके मन में कोई कामना नहीं होती। वह छोटी–छोटी वस्तुओं के लिये किसी के सामने हाथ नहीं फैलाता अथवा तुच्छ विषय–सुखों की अभिलाषा नहीं रखता, दूसरों के दोष नहीं देखता। वह मनुष्य समुन्द्र के समान अगाध गाम्भीर्य धारण करता है। जैसे समुन्द्र अनन्त जलराशि पाकर भी भरता नहीं है,उसी प्रकार वह भी निरंतर धर्मसंचय से कभी तृप्त नहीं हेाता। े‘मैं तुम पर स्नेह रखता हूं और तुम मुझपर। वे मुझमें अनुराग रखते हैं और मैं उनमें’ इस प्रकार पहले के सम्बन्धियों के सम्बन्ध का जितेन्द्रिय पुरूष चिन्तन नहीं करता। जगत् में ग्रामीणों और वनवासियों की जो–जो प्रवृतियां होती हैं, उन सबका जो सेवन नहीं करता तथा दूसरों की निंदा और प्रशंसा से भी दूर रहता है, उसकी मुक्ति हो जाती है। जो सबके प्रति मित्रता का भाव रखने वाला और सुशील है, जिसका मन प्रसन्न है, जो नाना प्रकार की आसक्तियों से मुक्त तथा आत्मज्ञानी है, उसे मृत्यु के पश्चात् मोक्षरूप महान् फल की प्राप्ति होती है। जो सदाचारी, शीलसम्पन्न, प्रसन्नचित और आत्मतत्त्व को जानने वाला है, वह विद्वान् पुरूष इस लोक में सत्कार पाकर परलोक में परम गति पाता है। इस जगत् में जो केवल शुभ ( कल्याणकारी ) कर्म है तथा सतपुरूषों ने जिसका आचरण किया है, वही ज्ञानवान् मुनि का मार्ग है। वह स्वभावत: उसका आचरण करता है। उससे कभी च्युत नहीं होता। ज्ञान सम्पन्न जितेन्द्रिय पुरूष घर से निकलकर वन का आश्रय ले वहां मृत्यु काल की प्रतीक्षा करता हुआ निर्द्वन्द्व विचरता रहता है। इस प्रकार वह ब्रह्मभाव को प्राप्त होने में समर्थ हो जाता है। जिसको दूसरे प्राणियों से भय नहीं है तथा जिससे दूसरे प्राणी भी भय नहीं मानते, उस देहाभिमान से रहित महात्मा पुरूष को कहीं से भी भय नहीं प्राप्त होता। वह उपभोग द्वारा प्रारब्ध–कर्मों को क्षीण करता है और कर्तृत्वाभिमान तथा फलासक्ति से शून्य होने के कारण नूतन कर्मों का संचय नहीं करता है। सभी प्राणियों में समानभाव रखकर सबको मित्र की भांति अभयदान देता हुआ विचरता है। जैसे आकाश में पक्षियों का और जल में जलचर जन्तुओं का पदचिन्ह नहीं दिखायी देता, उसी प्रकार ज्ञानी की गति भी जानने में नहीं आती है। इसमें तनिक भी संशय नहीं है। राजन्! जो घर–बार को छोड़कर मोक्षमार्ग का ही आश्रय लेता है, उसे अनन्त वर्षों के लिये दिव्य तेजोमय लेाक प्राप्त होते हैं। जिसका आचार–विचार शुद्ध ओर अन्त:करण निर्मल है, जिसकी कामनाएं शुद्ध हैं तथा जो भोगों से पराङ्मुख हो चुका है, वह आत्मज्ञानी पुरूष सम्पूर्ण कर्मों का, तपस्या का तथा नाना प्रकार की विघाओं का विधिवत् संन्यास (त्याग) करके सर्वत्यागी संन्यासी होकर इहलोक में सम्मानित हो परलोक में अक्षय स्वर्ग (ब्रह्मधाम) को प्राप्त होता है। ब्रह्मराशि से उत्पन्न हुआ जो पितामह ब्रह्माजी का उत्तम धाम है, वह हृदयगुहा में छिपा हुआ है। उसकी प्राप्ति सदा दम (इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह ) से ही होती है।
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