महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 163 श्लोक 1-16
त्रिषष्टयधिकशततम (163) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
काम, क्रोध आदि तेरह दोषों का निरूपण और उनके नाश का उपाय
युधिष्ठिर ने पूछा- भरतश्रेष्ठ! परम बुद्धिमान पितामाह! क्रोध, काम, शोक, मोह, विधित्सा (शास्त्र–विरूद्ध काम करने की इच्छा), परासुता (दूसरों के मारने की इच्छा), मद, लोभ, मात्सर्य, ईर्ष्या, निंदा, दोषदृष्टि और कंजूसी (दैन्यभाव)- ये सब दोष किससे उत्पन्न होते हैं?, यह ठीक–ठीक बताइये। भीष्म जी ने कहा- महाराज युधिष्ठिर! तुम्हारे कहे हुए ये तेरह दोष प्राणियों के अत्यंत प्रबल शत्रु माने गये हैं, जो यहां मनुष्यों को सब ओर से घेरे रहते हैं। ये सदा सावधान रहकर प्रमाद में पड़े हुए पुरूष को अत्यंत पीड़ा देते हैं। मनुष्य को देखते ही भेड़ियों की तरह बलपूर्वक उस पर टूट पड़ते हैं। नरश्रेष्ठ! इन्हीं से सबको दु:ख प्राप्त होता है, इन्हीं की प्रेरणा से मनुष्य की पापकर्मों में प्रवृति होती है। प्रत्येक पुरूष को सदा इस बात की जानकारी रखनी चाहिये। पृथ्वीनाथ! अब मैं यह बता रहा हूं कि इनकी उत्पति किससे होती है? ये किस तरह स्थिर रहते हैं? और कैसे इनका विनाश होता है? राजन्! सबसे पहले क्रोध की उत्पति का यथार्थ रूप से वर्णन करता हूं। तुम यहां एकाग्रचित होकर इस विषय को सुनो। राजन्! क्रोध लोभ से उत्पन्न होता है, दूसरों के दोष देखने से बढ़ता, क्षमा करने से थम जाता और क्षमा से ही निवृत हो जाता है। काम संकल्प से उत्पन्न होता है । उसका सेवन किया जाय तो बढ़ता है और जब बुद्धिमान पुरूष उससे विरक्त हो जाता है, तब वह (काम) तत्काल नष्ट हो जाता है। क्रोध ओर लोभ से तथा अभ्यास से परासुता प्रकट होती है। संपूर्ण प्राणियों के प्रति दया से और वैराग्य से वह निवृत होती है। परदोष–दर्शन से इसकी उत्पति होती और बुद्धिमानों के तत्त्वज्ञान से वह नष्ट हो जाती है। मोह अज्ञान से उत्पन्न होता है और पाप की आवृति करने से बढ़ता है। जब मनुष्य विद्वानों में अनुराग करता है, तब उसका मोह तत्काल नष्ट हो जाता है। कुरूश्रेष्ठ! जो लोग धर्म के विरोधी शास्त्रों का अवलोकन करते हैं, उनके मन में अनुचित कर्म करने की इच्छारूप विधित्सा उत्पन्न होती है। यह तत्त्वज्ञान से निवृत होती है। जिसपर प्रेम हो, उस प्राणी के वियोग से शोक प्रकट होता है। परंतु जब मनुष्य यह समझ ले कि शोक व्यर्थ है- उससे कोई लाभ नहीं है तो तुरंत ही उस शोक की शांति हो जाती है। क्रोध, लोभ और अभ्यास के कारण परासुता अर्थात् दूसरों को मारने की इच्छा होती है। समस्त प्राणियों के प्रति दया और वैराग्य होने से उसकी निवृति हो जाती है। सत्य का त्याग और दुष्टों का साथ करने से मात्सर्य-दोष की उत्पति होती है। तात! श्रेष्ठ पुरूषों की सेवा और संगति करने से उसका नाश हो जाता है। अपने उत्तम कुल, उत्कृष्ट ज्ञान तथा ऐश्वर्य का अभिमान होने से देहाभिमानी मनुष्यों पर मद सवार हो जाता है; परंतु इनके यथार्थ स्वरूप का ज्ञान हो जाने पर वह मद तत्काल उतर जाता है।
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