महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 211 श्लोक 1-14

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एकादशाधिकद्विशततम (211) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकादशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

संसार चक्र और जीवात्‍मा की स्थिति का वर्णन

गुरूजी कहते हैं – वत्‍स ! जरायुज, अण्‍डज, स्‍वेदज और उद्धिज्‍ज - ये चार प्रकार के जो स्‍थावर और जगम प्राणी हैं, वे सब अव्‍यक्‍त से उत्‍पन्‍न हुए बताये गये हैं और अव्‍यक्‍त में ही उन सबका लय होता है । जिसका कोई लक्षण व्‍यक्‍त न हो उसे अव्‍यक्‍त समझना चाहिये । मन अव्‍यक्‍त प्रकृति के समान ही त्रिगुणात्‍मक हैं। जैसे पीपल के छोटे से बीज में एक विशाल वृक्ष अव्‍यक्‍तरूप से समाया हुआ हैं, जो बीज के उगने पर वृक्षरूप में परिणत हो प्रत्‍यक्ष दिखायी देता है, उसी प्रकार अव्‍यक्‍त से व्‍यक्‍त जगत् की उत्‍पत्ति होती है। जिस प्रकार लोहा अचेतन होने पर भी चुम्‍बककी और खिंच जाता है, वैसे ही शरीर के उत्‍पन्‍न होनेपर प्राणी के स्‍वाभाविक संस्‍कार तथा अविद्या, काम, कर्म आदि दूसरे गुण उसकी ओर खिंच आते है । इसी प्रकार उस अव्‍यक्‍त से उत्‍पन्‍न हुए उपर्युक्‍त कारणस्‍वरूप भाव अचेतन होने पर भी चेतनकर्ता के सम्‍बन्‍ध से चेतन से होकर जानना आदि क्रिया के हेतु बन जाते हैं। पहले पृथ्‍वी, आकाश, स्‍वर्ग, भूतगण, ऋषिगण तथा देवता और असुरगण इनमें से कोई नहीं था। चेतन के सिवा दूसरी किसी वस्‍तु की सत्‍ता ही नहीं थी । जड-चेतन का संयोग भी नहीं था। आत्‍मा सबके पहले विद्यमान था । वह नित्‍य, सर्वगत, मनका भी हेतु और लक्षणरहित है । यह कारणस्‍वरूप समस्‍त जगत् अज्ञान का कार्य बताया गया है। इन कारणों से युक्‍त होकर जीव कर्मों का संग्रह करता है । कर्मों से वासना और वासनाओं से पुन: कर्म होते हैं । इस प्रकार यह अनादि, अनन्‍त महान् संसार चक्र चलता रहता है। यह जन्‍म मरण का प्रवाहरूप संसारचक्र के समान घूम रहा है । अव्‍यक्‍त उसकी नाभि है । व्‍यक्‍त (देह और इन्द्रिय आदि) उसके अरे हैं । सुख-दु:ख, इच्‍छा आदि विकार इसकी नेमि हैं । आसक्ति धुरा है । यह चक्र निश्चित रूप से घूमता रहता है । क्षेत्रज्ञ (जीवात्‍मा) इस चक्र पर चालक बनकर बैठा हुआ है। जैसे तेली लोग तेल से युक्‍त होने के कारण तिलों को कोल्‍हू में पेरते हैं, उसी प्रकार यह सारा जगत् आ‍सक्तिग्रस्‍त होने के कारण अज्ञानजनित भोगों द्वारा दबा-दबाकर इस संसारचक्र में पेरा जा रहा है। जीव अहंकार अधीन होकर तृष्‍णा के कारण कर्म करता है और वह कर्म आगामी कार्य –कारण-संयोगमें हेतु बन जाता है । न तो कारण कार्य में प्रवेश करता हैं और न कार्य कारण में । कार्य करते समय काल ही उनकी सिद्धि और असिद्धि में हेतु होता हैं। हेतु सहित आठों प्रकृतियाँ और सोलह विकार – वे पुरूष से अधिष्ठित हो सदा एक दूसरे से मिलते और सृष्टि का विस्‍तार करते हैं। राजस और तामसभावों से युक्‍त हेतुबल से प्रेरित सूक्ष्‍मशरीर क्षेत्रज्ञ जीवात्‍मा के साथ-साथ ठीक उसी तरह दूसरे स्‍थूल शरीर में चला जाता हैं, जैसे वायु द्वारा उड़ायी हुई धूल उसी के साथ – साथ एक स्‍थान से दूसरे स्‍थान को जाती है। जैसे धूल के उड़ने से वायु न तो धूल से लिप्‍त होती है और न अलिप्‍त ही रहती है । उसी प्रकार न तो उन राजस, तामस आदि भावों से जीवात्‍मा लिप्‍त होता है और न अलिप्‍त ही रहता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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