महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 23 श्लोक 20-39

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त्रयोविंश (23) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयोविंश अध्याय: श्लोक 20-39 का हिन्दी अनुवाद

एक दिन लिखित शंख के आश्रम पर आये। दैवेच्छा से शंख भी उसी समय आश्रम से बाहर निकल गये थे। भाई शंख के आश्रम में जाकर लिखित ने खूब पके हुए बहुत से फल तोड़कर गिराये और उन सब को लेकर वे ब्रह्मर्षि बड़ी निश्चिन्तता के साथ खाने लगे। वे खा ही रहे थे कि शंख भी आश्रम पर लौट आये। भाई को फल खाते देख शंख ने उनसे पूछा-’तुमने ये फल कहाँ से प्राप्त किये हैं और किस लिये तुम इन्हें खा रहे हो ? लिखित ने निकट जाकर बड़े भाई को प्रणाम किया और हँसते हुए-से इस प्रकार कहा- ’भैया! मैंने ये फल यहीं से लिये हैं,। तब शंख ने तीव्र रोष में भरकर कहा- ’तुमने मुझसे पूछे बिना स्वयं ही फल लेकर यह चोरी की है। ’अतः तुम राजा के पास जाओ और अपनी करतूत उन्हें कह सुनाओ। उनसे कहना-’नृपश्रेष्ठ ! मैंने इस प्रकार बिना दिये हुए फल ले लिये हैं, अतः मुझे चोर समझकर अपने धर्म का पालन कीजिये। नरेश्वर! चोर के लिये जरे निसत दण्ड हो, वह शीघ्र मुझे प्रदान कीजिये’’। महाबाहो! बड़े भाई के ऐसा कहने पर उनकी आज्ञा से कठोर व्रत का पालन करने वाले लिखित मुनि राजा सुद्युम्न के पास गये। सुद्युम्न ने द्वारपालों से जब यह सुना कि लिखित मुनि आये हैं तो वे नरेश अपने मन्त्रियों के साथ पैदल ही उनके निकट गये। राजा ने उन धर्मज्ञ मुनि से मिलकर पूछा-’भगवन्! आपका शुभागमन किस उद्देश्य से हुआ है? यह बताइये और उसे पूरा हुआ ही समझिये,। उनके इस तरह कहने पर विप्रर्षि लिखित ने सुद्युम्न से यों कहा- ’राजन् ! पहले यह प्रतिज्ञा कर लो कि ’ हम करेंगे, उसके बाद मेरा उद्देश्य सुनो और सुनकर उसे तत्काल पूरा करो। नरश्रेष्ठ! मैंने बड़े भाई के दिये बिना ही उनके बगीचे से फल लेकर खा लिये हैं; महाराज! इसके लिये मुझे शीध्र दण्ड दीजिये’।

सुद्युम्न ने कहा- ब्राह्मण शिरोमणे! यदि आप दण्ड देने में राजा को प्रणाम मानते हैं तो वह क्षमा करके आपको लौट जाने की आज्ञा दे दे, इसका भी उसे अधिकार है। आप पवित्र कर्म करने वाले और महान् व्रतधारी हैं। मैंने अपराध को क्षमा करके आपको जाने की आज्ञा दे दी । इसके सिवा, यदि दूसरी कामनाएँ आपके मन में हों तो उन्हें बताइये, मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।

व्यास जी ने कहा- महामना राजा सुद्युम्न के बारंबार आग्रह करने पर भी ब्रह्मर्षि लिखित ने उस दण्ड के सिवा दूसरा कोई वर नहीं माँगा। तब उन भूपाल ने महामना लिखित के दोनों हाथ कटवा दिये। दण्ड पाकर लिखित वहाँ से चले गये। अपने भाई शंख के पास जाकर लिखित ने आर्त होकर कहा- भैया! मैंने दण्ड पा लिया। मुझ दुर्बुद्धि के उस अपराध को आप क्षमा कर दें’।

शंख बोले- धर्मज्ञ ! मैं तुम पर कुपित नहीं हूँ। तुम मेरा कोई अपराध नहीं करते हो। ब्रह्मन्! हम दोनों का कुल इस जगत् में अत्यन्त निर्मल एवं निष्कलंग्न रूप में विख्यात है। तुमने धर्म का उल्लघन किया था, अतः उसी का प्रायश्चित किया है। अब तुम शीघ्र ही बाहुदा नदी के तट पर जाकर विधि पूर्वक देवताओं, ऋषियों और पितरों का तर्पण करो। भविष्य में फिर कभी अधर्म की ओर मन न ले जाना।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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