महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 269 श्लोक 40-51

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एकोनसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम (269) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनसप्‍तत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 40-51 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद

कपिल ने कहा - आप लोग सन्‍मार्ग में स्थित रहकर यहाँ योग मार्ग के फल का प्रत्‍यक्ष दर्शन कर सकते हैं; परंतु कर्म मार्ग में रहकर आप लोग जिस यज्ञ की उपासना करते हैं , उससे यहाँ कौन-सा प्रत्‍यक्ष फल प्राप्‍त होता है ? स्‍यूमरश्मि ने कहा- ब्रह्मन् ! मेरा नाम स्‍यूरशिम है। मैं ज्ञान-प्राप्ति की इच्‍छा से यहाँ आया हूँ। मैंने कल्‍याण की इच्‍छा रखकर सरल भाव से ही अपनी बातें आपकी सेवा में उपस्थित की हैं, वाद-विवाद की इच्‍छा से नहीं । मेरे मन में एक भयानक संशय उठ खड़ा हुआ है, इसे आप ही मिटा सकते हैं। आपने कहा था कि तुम सन्‍मार्ग में स्थित रहकर यहाँ योगमार्ग के फल का प्रत्‍यक्ष दर्शन कर सकते हो। मैं पूछता हूँ कि आप जिसकी उपासना करते हैं, यहाँ उसका अत्‍यन्‍त प्रत्‍यक्ष फल क्‍या है ? आप उसका तर्क का सहारा न लेकर प्रतिपादन कीजिये, जिससे मैं आगम के अर्थ को जान सकूँ । वेदमत का अनुसरण करने वाले शास्‍त्र तो आगम हैं ही, तर्कशास्‍त्र (वेदों के अर्थ का निर्णय करने वाले पूर्वोत्तर मीमांसा आदि) भी आगम हैं । जिस-जिस आश्रम में जो-जो धर्म विहित है, वहां-वहां उसी-उसी धर्म की उपासना करनी चाहिये। उस-उस स्‍थान पर उसी-उसी धर्मका आचरण करने से ही सिद्धि का प्रत्‍यक्ष दर्शन होता है । जैसे एक जगह जाने वाली नाव में दूसरी जगह जाने वाली नाव बाँध दी जाय तो वह जल के स्‍त्रोत से अपहृत हो किसी को गन्‍तव्‍य स्‍थान तक नहीं पहुँचा सकती, उसी प्रकार पूर्वजन्‍म के कर्मों की वासना से बँधी हुई हमारी कर्ममयी नौका हम कुबुद्धि पुरूषों को कैसे भवसागर से पार उतारेगी ? भगवन् ! यह आप मुझे बताइये, मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मुझे उपदेश दीजिये । वास्‍तव में इस जगत के भीतर न कोई त्‍यागी है न संतुष्‍ट, न शोकहीन है न नीरोग। न तो कोई पुरूष कर्म करने की इच्‍छा से सर्वथा शून्‍य है, न आसक्ति से रहित है और न सर्वथा कर्म का त्‍यागी ही है । आप भी हम लोगों की ही भांति हर्ष और शोक प्रकट करते हैं। समस्‍त प्राणियों के समान आपके समक्ष भी शब्‍द, स्‍पर्श आदि विषय उपस्थित और गृहीत होते हैं । इस प्रकार चारो वर्णों और आश्रमों के लोग सभी प्रवृतियों में एकमात्र सुख का ही आश्रय लेते हैं- उसी को अपना लक्ष्‍य बनाकर चलते हैं, अत: सिद्धान्‍तत: अक्षय सुख क्‍या है, यह बताइये । कपिल ले कहा- जो-जो शास्‍त्र जिस-जिस अर्थ का आचरण-प्रतिपादन करता है, वह-वह सभी प्रवृतियों में सफल होता है। जिस साधन का जहां अनुष्‍ठान होता है, वहां-वहां अक्षय सुख की प्राप्ति होती है । जो ज्ञान का अनुसरण करता है, ज्ञान उसके समस्‍त संसार बन्‍धन का नाश कर देता है। बिना ज्ञान की जो प्रवृति होती है, वह प्रजा को जन्‍म और मरण के चक्‍कर में डालकर उसका विनाश कर देती है । आप लोग ज्ञानी हैं , यह बात सर्वविदित है। आप सब ओर से नीरोग भी है; परंतु क्‍या आप लोगों में से कोई भी किसी भी काल में एकात्‍मता को प्राप्‍त हुआ है? (जब एकमात्र अद्वितीय आत्‍मा अर्थात् ब्रह्म की ही सत्‍ता का सर्वत्र बोध होने लगे, तब उसे एकात्‍मता का ज्ञान कहते हैं) ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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