महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 28 श्लोक 36-51

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अष्टाविंश (28) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टाविंश अध्याय: श्लोक 36-51 का हिन्दी अनुवाद

जैसे महासागर में एक काठ एक ओर से और दूसरा दूसरी ओर से आकर दोनों थोड़ी देर के लिये मिल जाते हैं तथा मिलकर फिर बिछुड़ भी जाते हैं, इसी प्रकार यहाँ प्राणियों के संयोग-वियोग होते रहते हैं। जगत् में जिन धनवान् पुरुषों की सेवा में बहुत-सी सुन्दरियाँ गीत और वाद्यों के साथ उपस्थित हुआ करती हैं और जो अनाथ मनुष्य दूसरों के अन्न पर जीवन-निर्वाह करते हैं, उन सबके प्रति काल की समान चेष्टा होती है। हमने संसार में अनेक बार जन्म लेकर सहस्त्रों माता-पिता और सैकड़ों स्त्री-पुत्रों के सुख का अनुभव किया है; परंतु अब वे किसके हैं अथवा हम उनमें से किसके हैं? इस जीव का न तो कोई सम्बन्धी होगा और न यह किसी का सम्बन्धी है। जैसे मार्ग में चलने वालों को दूसरे राहगीरों का साथ मिल जाता है, उसी प्रकार यहाँ भाई-बन्धु, स्त्री-पुत्र और सुहृदों का समागम होता है। अतः विवेकी पुरुष को अपने मनमें यह विचार करना चाहिये कि ’मैं कहाँ हूँ, कहाँ जाऊँगा, कौन हूँ, यहाँ किस लिये आया हूँ और किस लिये किसका शोक करूँ?’ यह संसार चक्र के समान घूमता रहता है। इसमें प्रियजनों का सहवास अनित्य है। यहाँ भ्राता, मित्र, पिता और माता आदि का साथ रास्ते में मिले हुए बटोहियों के समान ही है। यद्यपि विद्वान् पुरुष कहते हैं कि परलोक न तो आँखों के सामने है और न पहले का ही देखा हुआ है, तथापि अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले पुरुष को शास्त्रों की आज्ञा का उल्लंघन न करके उसकी बातों पर विश्वास करना चाहिये। विज्ञ पुरुष पितरों का श्राद्ध और देवताओं का यजन करे। धर्मानुकूल कार्यां का अनुष्ठान और यज्ञ करे तथा विधि पूर्वक धर्म, अर्थ और काम का भी सेवन करें। जिसमें जरा और मृत्युरूपी बडे़-बडे़ ग्राह पड़े हुए हैं, उस गम्भीर काल समुद्र में यह सारा संसार डूब रहा है, किंतु कोई इस बात को समझ नहीं पाता है। केवल आयुर्वेद का अध्ययन करने वाले बहुत से वैद्य भी परिवार सहित रोगों के शिकार हुए देखे जाते हैं। वे कड़वे-कड़वे काढे़ और नाना प्रकार के घृत पीते रहते हैं तो भी जैसे महासागर अपनी तट-भूमि से आगे नहीं बढ़ता, उसी प्रकार वे मौत को लाँघ नहीं पाते हैं। रसायन जानने वाले वैद्य अपने लिये रसायनों का अच्छी तरह प्रयोग करके भी वृद्धावस्था द्वारा वैसे ही जर्जर हुए दिखायी देते हैं, जैसे श्रेष्ठ हाथियों के आघात से टूटे हुए वृक्ष दृष्टिगोचर होते हैं। इसी प्रकार शास्त्रों के स्वाध्याय और अभ्यास में लगे हुए विद्वान्,तपस्वी, दानी और यज्ञशील पुरुष भी जरा और मृत्यु को पार नहीं कर पाते हैं। संसार में जन्म लेने वाले सभी प्राणियों के दिन-रात, वर्ष मास और पक्ष एक बार बीतकर फिर वापस नहीं लौटते हैं। मृत्यु के इस विशाल मार्ग का सेवन सभी प्राणियों को करना पड़ता है। इस अनित्य मानव को भी काल से विवश होकर कभी न टलने वाले मृत्यु के मार्ग पर आना ही पड़ता है। (आस्तिक मत के अनुसार)जीव (चेतन) से शरीर की उत्पत्ति हो या (नास्तिकों की मान्यता के अनुसार) से शरीर जीव की। सर्वथा स्त्री-पुत्र आदि या अन्य बन्धुओं के साथ जो समागम होता है, वह रास्ते में मिलने वाले राहगीरों के समान ही है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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