महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 318 श्लोक 19-35

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अष्‍टादशाधिकत्रिशततम (318) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टादशाधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद

उस समय अपने वेद की दक्षिणा के लिये मामा के द्वारा विशेष आग्रह होने पर महर्षि देवल के सामने ही मैंने आधी दक्षिणा उन्‍हें दे दी और आधी स्‍वयं ग्रहण की। तदनन्‍तर सुमन्‍तु, पैल, जैमिनि, तुम्‍हारे पिता तथा अन्‍य ॠषि-मुनियों ने मेरा बड़ा आदर-सत्‍कार किया। निष्‍पाप नरेश ! इस प्रकार मैंने सूर्यदेव से शुक्‍लयजुर्वेद की पंद्रह शाखाएँ प्राप्‍त की । इसी तरह रोमहर्षण सूत से मैंने पुराणों का अध्‍ययन किया। नरेश्‍वर ! तदन्‍तर मैंने बीजरूप प्रणव और सरस्‍वती देवी का सामने करके भगवान् सूर्य की कृपा से शतपथ की रचना आरम्‍भ की और इस अपूर्व ग्रन्‍थ को पूर्ण कर लिया और जो मोक्ष का मार्ग मुझे अभीष्‍ट था, उसका भी भलीभाँति सम्‍पादन किया। फिर मैंने शिष्‍यों को वह सारा ग्रन्‍थ रहस्‍य और संग्रह-सहित पढ़ाया और उन्‍हें घर जाने की अनुमति दे दी। फिर वे सभी शुद्ध आचार-विचार वाले शिष्‍य अत्‍यन्‍त हर्षित हो अपने-अपने घर को चले गये। इस प्रकार सूर्यदेव के द्वारा उपदेश की हुई शुक्‍लयजुर्वेद विद्या की इन पंद्रह शाखाओं का ज्ञान प्राप्‍त करके मैंने इच्‍छानुसार वेद्यतत्‍व का चिन्‍तन किया है। राजन् ! एक समय वेदान्‍तज्ञान में कुशल विश्‍वावसु नामक गन्‍धर्व मेरे पास आया एवं इस बात का विचार करते हुए कि यहाँ ब्राह्माण- जाति के लिये हितकर क्‍या है ? सत्‍य और सर्वोतम ज्ञातव्‍य वस्‍तु क्‍या है ? मुझसे पूछने लगा। पृथ्‍वीनाथ! तत्‍पश्‍चात् उन्‍होंने वेद के सम्‍बन्‍ध में चौबीस प्रश्‍न पूछे। फिर आन्‍वीक्षिकी विद्या के सम्‍बन्‍ध में पचीसवाँ प्रश्‍न उपस्थित किया। वे चौबीस प्रश्‍न इस प्रकार हैं— १. विश्‍वा क्‍या है ? २. अविश्‍व क्‍या है ? ३. अश्‍वा क्‍या है ? ४. अश्‍व क्‍या है ? ५. मित्र क्‍या है ? ६. वरूण क्‍या है ? ७. ज्ञान क्‍या है ? ८. ज्ञेय क्‍या है ? ९. ज्ञाता क्‍या है ? १०. अज्ञ क्‍या है ? ११. क कौन है ? १२. कौन तपस्‍वी है ? १३. और कौन अतपस्‍वी है ? १४. कौन सूर्य है ? १५. तथा कौन अतिसूर्य ? १६. और विद्या क्‍या है ? १७. तथा अविद्या क्‍या है ? १८. राजन् ! वेद्य क्‍या है ? १९. अवेद्य क्‍या है ? २०. चल क्‍या है ? २१. अचल क्‍या है ? २२. अपूर्व क्‍या है ? २३. अक्षय क्‍या है ? २४. और विनाशशील क्‍या है ? ये ही उनके पास परम उत्‍तम प्रश्‍न हैं । महाराज ! इन प्रश्‍नों को सुनकर मैंने गन्‍धर्वशिरोमणि राजा विश्‍वावसु से कहा—‘ राजन् ! आपने क्रमश: बडे़ उत्‍तम प्रश्‍न उपस्थित किये हैं । आप अर्थ के ज्ञाता हैं । थोड़ी देर ठहर जाइये, तबतक मैं आपके इन प्रश्‍नों पर विचार कर लेता हूँ ।‘तब 'बहुत अच्‍छा’ कहकर गन्‍धर्वराज चुपचाप बैठे रहे। तदनन्‍दर मैंने पुन: सरस्‍वती देवी का मन-ही–मन चिन्‍तन किया । फिर तो जैसे दही से घी निकल आता है, उसी प्रकार उन प्रश्‍नों का उत्‍तर निकल आया। राजन् ! तात ! उस समय मैं वहाँ उपनिषद्, उसके परिशिष्‍ट भाग और परम उत्‍तम आन्‍वीक्षिकी विद्या पर दृष्टिपात करके मन के द्वारा उन सबका मन्‍थन करने लगा। नृपश्रेष्‍ठ ! यह आन्‍वीक्षिकी विद्या (त्रयी, वार्ता और दण्‍डनीति—इन तीन विद्याओं की अपेक्षा से) चौथी बतायी गयी है। यह मोक्ष में सहायक है। पचीसवें तत्‍वरूप पुरूष अधिष्ठित उस विद्या का मैंने तुम से प्रतिपादन किया था (वही विश्‍वावसु के निकट भी कही गयी)।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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