महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 347 श्लोक 55-75

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सप्तचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (347) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 55-75 का हिन्दी अनुवाद

नाद और स्वर से विशिष्ट सामगान की वह सर्वथा स्निग्ध एवं मधुर ध्वनि रसातल में सब ओर फैल गयी, जो समस्त प्राणियों के लिये गुणकारक थी। उन दोनों असुरों ने वह याब्द सुनकर वेदों को कालपाश से आबद्ध करके रसातल में फेंक दिया और स्वयं उसी ओर दौड़े जिधर से वह ध्वनि आ रही थी। । राजन् ! इसी बीच में हयग्रीव रूपधारी भगवान श्रीहरि ने रसातल में पड़े हुए उन वेदों को ले लिया तथा ब्रह्माजी को पुनः वापस दे दिया और फिर वे अपने आदि रूप में आ गये। भगवान ने महायागर के पूर्वोत्तर भाग में वेदों के आश्रयभूत अपने हयग्रीव रूप की स्थापना करके पुनः पूर्वरूप धारण कर लिया। तब से भगवान हयग्रीव वहीं रहने लगे। इधर वेदध्वनि के स्थान पर आकर मधु और कैटभ दोनों दानवों ने जब कुछ नहीं देखा, तब वे बड़े वेग से फिर वहीं लौट आये, जहाँ उन वेदों को नीचे डाल रखा था। वहाँ देखने पर उन्हें वह स्थान सूना ही दिखायी दिया।

तब वे बलवानों मेें श्रेष्ठ दोनों दानव पुनः उत्तम वेग का आश्रश् ले रसातल से शीघ्र ही ऊपर उठे और ऊपर आकर देखते हैं तो वे ही आदिकर्ता भगवान पुरुषोत्तम दृष्टिगोचर हुए। जो चन्द्रमा के समान विशुद्ध, उज्जवल प्रभा से विभूषित, गौरवर्ण के थे। वे उस समय अनिरुद्ध-विगह में स्थित थे और वे अमित पराक्रमी भगवान योगनिद्रा का आश्रय लेकर सो रहे थे।। पानी के ऊपर शेषनाग के शरीर की शय्या निर्मित हुई थी। वह शय्या ज्वालामालाओं से आवृत्त जान पड़ती थी। उसके ऊपर विशुद्ध सत्त्वगुण से सम्पन्न मनोहर कान्ति वाले भगवान नारायण सो रहे थे। उन्हें देखकर वे दोनों दानवराज ठहाका मारकर जोर-जोर से हँसने लगे। रजोगुण और तमोगुण से आविष्ट हुए वे दोनों असुर परस्पर कहने लगे, ‘यह जो श्वेतवर्ण वाला पुरुष निद्रा में निमग्न होकर सो रहा है, निश्चय ही इसी ने रसातल से वेदों का अपहरण किया है। यह किसका पुत्र है ? कौन है ? और क्यों यहाँ सर्प के शरीर की शय्या पर सो रहा है ?’ इस प्रकार बातचीत करके उन दानों ने भगवान को जगाया। उन्हें युद्ध के लिय उत्सुक जान भगवान पुरुषोत्तम जाग उठे। फिर उन दोनों असुरेन्द्रों का अच्छी तरह निरीक्षण करके उनहोंने मन-ही-मन उनके साथ युद्ध करने का निश्चय किया। फिर तो उन दोनों असुरों का और भगवान नारायण का युद्ध आरम्भ हुआ। भगवान मधुसूदन ने ब्रह्माजी का मान रचाने के लिये तमोगुण और रजोगुण से आविष्ट शरीर वाले उन दोनों दैत्यों - मधु और कैटभ को मार डाला।। इस प्रकार वेदों को वापस लाकर और मधु-कैटभ का वध करके भगवान पुरुषोत्तम ने ब्रह्माजी का शोक दूर कर दिया। ततपश्चात् वेद से समानित और भगवान से सुरक्षित होकर ब्रह्माजी ने समस्त चराचर जगत् की सृष्टि की। ब्रह्माजी को लोक-रचना की श्रेष्ठ बुद्धि देकर भगवान नारायणदेव वहीं अन्तर्धान हो गये। वे जहाँ से आये थे, वहीं चले गये। श्रीहरि ने इस प्रकार हयग्रीवरूप धारण करके उन दोनों दानवों का वध किया था। उन्होंने पुनः प्रवृत्तिधर्म का प्रचार करने के लिये ही उस शरीर को प्रकट किया था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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