महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 348 श्लोक 61-78

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

अष्टचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (348) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 61-78 का हिन्दी अनुवाद

नृपश्रेष्ठ ! यह मैंने तुमसये गुरुकृपा से ज्ञात हुए अनन्य भक्तिरूप धर्म का वर्णन किया है। जिनका अन्तःकरण पवित्र नहीं है, ऐसे लोगों के लिये इस धर्म का ज्ञान होना बहुत ही कठिन है। नरेश्वर ! भगवान के अनन्य भक्त दुर्लभ हैं, क्योंकि ऐसे पुरुष बहुत नहीं हुआ करते। कुरुनन्दन ! यदि सम्पूर्ण भूतों के हित में तत्पर रहने वाले, आत्मज्ञानी, अहिंसक एवं अनन्य भक्तों से जगत् भर जाय तो यहाँ सर्वत्र सत्ययुग ही छा जाय और कहीं भी सकाम कर्मों का अनुष्ठा न हो। प्रजानाथ ! इस प्रकार मेरे धर्मज्ञ गुरु द्विजश्रेष्ठ व्यास ने श्रीकृष्ण और भीष्म के सुनते हुए ऋषि मुनियों के समीप धर्मराज को इस धर्म का उपदेश किया था। राजन् ! उनसे भी प्राचीन काल में महातपस्वी नारदजी ने इसका प्रतिपादन किया था। नारायण की आराधना में लगे हुए अनन्य भक्त चन्द्रमा के समान गौरवर्ण वाले उन्हीं परब्रह्म स्वरूप भगवान अच्युत को प्राप्त होते हैं।

जनमेजय ने पूछा - मुने ! इस प्रकार ज्ञानी पुरुषों द्वारा सेवित जो यह अनेक सद्गुणों से सम्पन्न धर्म है, इसे नाना प्रकार के व्रतों में लगे हुए दूसरें ब्राह्मण क्यों आरण में नहीं लाते हैं ?

वैशम्पायनजी ने कहा- भरतनन्दन ! शरीर के बन्धन में बँधे हुए जो जीव हैं, उनके लिये ईश्वर ने तीन प्रकार की प्रकृतियाँ बनायी हैं- सात्विकी, राजसी और तामसी। पुरुषसिंह ! कुरुकुल धुरंधर वीर ! इन तीन प्रकृतियों वाले तीवों में सात्त्विकी प्रकृति से युक्त सात्त्विक पुरुष है, वही श्रेष्ठ है; क्योंकि वही मोक्ष का निश्चित अधिकारी है। यहाँ भी वह इस बात को अच्छी तरह जानता है कि परमपुरुष नारायण सर्वोत्तम वेदवेत्ता हैं और मोक्ष के परम आश्रय भगवान नारायण ही हैं, इसीलिये वह मनुष्य सात्त्विक माना गया है। भगवान नारायण के आश्रित उनका अनन्य भक्त अपने मन के अभीष्ट भगवान पुरुषोत्तम का निरन्तर चिन्तन करता हुआ उनको प्राप्त कर लेता है। मोक्षधर्म में तत्पर रहने वाले जो कोई भी मनीषी यति हैं तथा जिनकी तृष्णा का सर्वथा नाश हो गया है, उनके योग-क्षेम का भार स्वयं भगवान नारायण वहन करते हैं। जन्म-मरण के चक्कर में पड़े हुए जिस पुरुष को भगवान मधुसूदन अपनी कृपा दृष्टि से देख लेते हैं, उसे सात्त्विक जानना चाहिये। वह मोक्ष का सुनिश्चित अधिकारी हो जाता है। एकान्त भक्तों द्वारा सेवित धर्म सांख्य और योग के तुल्य है। उसके सेवन से मनुष्य नारायण स्वरूप मोक्ष में ही परम गति को प्राप्त होते हैं। राजन् ! जिस पर भगवान नारायण की कृपादृष्टि हो जाती है, वह पुरुष ही ज्ञानवान् होता है। इस तरह बपनी इच्छामात्र से कोई ज्ञानी नहीं होता है। प्रजानाथ ! राजसी और तामसी - ये दो प्रकृतियाँ दोषों से मिश्रित होती हैं। जो पुरुष राजस और तामस प्रकृति से युक्त होकर जन्म धारण करता है, वह प्रायः सकाम कर्म में प्रवृत्ति के लक्षणों से युक्त होता है। अतः भगवान श्रीहरि उसकी ओर नहीं देखते। ऐसा पुरुष जब जन्म लेता है, तब उस पर लोक पितामह ब्रह्मा की कृपा दृष्टिहोती है (और वे उसे प्रवृत्ति मार्ग में नियुक्त कर देते हैं)। उसका मन रजोगुण और तमोगुण के प्रवाह में डूबा रहता ळै। नृपश्रेष्ठ ! देवता और ऋषि कानमायुक्त सत्त्वगुण में स्थित होते हैं। उनमें शुद्ध सत्त्वगुण की कमी होती है, इसलिये वे वैकारिक माने जाते हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।