महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 60 श्लोक 45-54

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षष्टित्तम (60) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: षष्टित्तम अध्याय: श्लोक 45-54 का हिन्दी अनुवाद

इस मानसिक यज्ञ करने वाले यजमानके यज्ञ में देवता और मनुष्य सभी भाग ग्रहण करने की अभिलाषा रखते हैं; क्योकि उसका यज्ञ श्रद्धा के कारण परम पवित्र होता है; श्रद्धाप्रधान यज्ञ करने का अधिकार सभी वर्णों को प्राप्त है। ब्राह्मण अपने कर्मोंद्वारा ही सदा दूसरे वर्णों के लिये अपने-अपने देवता के समान है; अतः वह दूसरे वर्णों का यज्ञ न करता हो, ऐसी बात नहीं है। जिस यज्ञ में वैश्य आचार्य आदि के रुप में कार्य कर रहा हो, वह निकृष्ठ माना गया है। विधाता ने केवल ब्राह्मण को ही तीनों वर्णों का यज्ञ कराने के लिये उत्पन्न किया है। विधाता एकमात्र ब्राह्मण से ही अन्य तीन वर्णो की सृष्टि करते हैं, अतः शेष तीन वर्ण भी ब्राह्मण के समान ही सरल तथा उनके जाति-भाई या कुटुम्बी हैं। जैसै ऋक्, यजुः और साम एकमात्र अकार से ही प्रकट होने के कारण परस्पर अभिन्न हैं, उसी प्रकार उन सभी वर्णों में तत्त्व का निश्चय किया जाय तो एकमात्र ब्राह्मण ही उन सबसे रुपमें प्रकट हुआ है, अतः ब्राह्मण के साथ सबकी अभिन्न्ता है। राजेन्द्र! प्राचीन बातों को जानने वाले विद्वान् इस विषय में यज्ञ की अभिलाषा रखने वाले वैखानस मुनियों की कही हुई एक गाथा का उल्लेख किया करते हैं, जो यज्ञ के सम्बन्ध में गायी गयी है। सूर्य के उदय होने पर अथवा सूर्योदय से पहले ही श्रद्धालु एवं जितेन्द्रिय मनुष्य जो धर्म के अनुसार अग्नि में आहुति देता है, उसमें श्रद्धा ही प्रधान हेतु है। (बह्वुच ब्राह्मणमें सोलह प्रकार के अग्रिहोत्र बताये गये हैं) होता का किया हुआ जो हवन वायुदेवता के उद्देश्य से होता है, वह स्कन्नसंज्ञक होम प्रथम है और उसमें भिन्न जों स्कन्नसंज्ञक होम है, वह अन्तिम या सबसे उत्कृष्ट है। इसी प्रकार रौद्र आदि बहुत-से यज्ञ हैं,जो नाना प्रकारके कर्मफल देने वाले हैं। उन षोडश प्रकार के अग्निहोत्रों को जो जानता है, वही यज्ञ-सम्बन्धी निश्यात्मक ज्ञान से सम्पन्न है। ऐसा ज्ञानी एवं श्रद्धालु द्विज ही यज्ञ करने का अधिकारी है। यदि कोई चोर हो, पापी हो अथवा पापाचारियोंमें भी सबसे महान् हो तो भी जो यज्ञ करना चाहता है, उसे सभी लोग ‘साधु‘ ही कहते हैं। ऋषि भी उसकी प्रश्ंसा करते हैं। यह यज्ञ-कर्म श्रेष्ठ है, इसमें कोई संदेह नहीं है; अतः सभी वर्णके लोगोंको सदा सब प्रकारसे यज्ञ करना चाहिये, यही शास्त्रोंका निर्णय है। तीनों लोकोमें यज्ञके समान कुछ भी नहीं है; इसलिये मनुष्यको दोषदृष्टिका परित्याग करके शास्त्रीय विधिका आश्रय ले अपनी शक्ति और इच्छाके अनुसार उत्तम श्रद्धापूर्वक यज्ञका अनुष्ठान करना चाहिये, ऐसा मनीषी पुरुषोंका कथन है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वं के अन्तर्गत राजधर्मांनुशासनपर्वं में वर्णाश्रमधर्म का वर्णनविषयक साठवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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