महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 80 श्लोक 26-41

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अशीतितम (80) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अशीतितम अध्याय: श्लोक 26-41 का हिन्दी अनुवाद

जो कीर्ति को प्रधानता देता है और मर्यादा के भीतर स्थित रहता है, जो सामथ्र्यशाली पुरूषों से द्वेष और अनर्थ नहीं करता है, जो कामना से, भय से, लोभ से अथवा क्रोध से भी धर्म का त्याग नहीं करता, जिसमें कार्यकुशलता तथा आवश्यकता के अनुरूप बातचीत करने की पूरी योग्यता हो, वहीं पुरूष तुम्हारा प्रधानमन्त्री होना चाहिये। जो कुलीन, शीलसम्पन्न, सहनशील झूठी आत्मप्रशंसा न करने वाले, शूरवीर, श्रेष्ठ, विद्वान तथा कर्तव्य अकर्तव्य को समझने में कुशल हो, उन्हें तुम्हें मन्त्रि पद पर प्रतिष्ठित करना चाहिये। वे तुम्हारें सभी कार्यों में निुयक्त होने योग्य है। उन्हें तुम सत्कारपूर्वक सुख और सुविधा की वस्तुएँ देना। इस प्रकार आदरपूर्वक अपनाये जाने पर वे तुम्हारे अच्छे सहायक सिद्ध होंगे। इन्हें इनकी योग्यता के अनुरूप् कर्मों में पूरा अधिकार देकर लगा दिया जाय तो ये बडे बडे कार्यों के साधन में तत्पर हो राजा के लिये कल्याण की वृद्धि कर सकते है। क्योंकि ये सदा परस्पर होड लगाकर कार्य करते है और एक दूसरे से सलाह लेकर अर्थ की सिद्धि के विषय में विचार करते रहते है। युधिष्ठिर! तुम अपने कुटुम्बीजनों से सदा उसी प्रकार भय मानना, जैसे लोग मृत्यु से डरते रहते है। जिस प्रकार पडोसी राजा अपने पास के राजा की उन्नति देख नही सकता, उसी प्रकार एक कुटुम्बी दूसरे कुटुम्बी का अभ्युदय कभी नहीं सह सकता। महाबाहो! जो सरल, कोमल स्वभाववाला, उदार, लज्जाशील और सत्यवादी है; ऐसे राजा के विनाश का समर्थन कुटुम्बी के सिवा दूसरा नहीं कर सकता। जिसके कुटुम्बी या सगे-सम्बन्धी नहीं हैं, वह भी सुखी नहीं होता; इसलिये कुटुम्बीजनों की अवहेलना नहीं करनी चाहिये। भाई-बन्धु या कुटुम्बीजनों से रहित पुरूष को दूसरे लोग दबाते रहते हैं। दूसरों के दबाने पर उस मनुष्य को उसके सगे भाई-बन्धु ही सहारा देते हैं। दूसरे लोग किसी सजातीय बन्धु का अपमान करें तो जाति-भाई उसको किसी तरह सहन नहीं कर सकते हैं। यदि सगे-सम्बन्धी भी किसी पुरूष का अपमान करें तो उसकी जाति के लोग उसे अपना ही अपमान समझतें हैं। इस प्रकार कुटुम्बीजनों में गुण भी हैं और अवगुण भी दिखायी देते हैं। दूसरी जाति का मनुष्य न अनुग्रह करता हैं, न नमस्कार। इस प्रकार जाति- भाईयों में भलाई और बुराई दोनों देखने में आती हैं। राजा का कर्तव्य हैं कि वह सदा अपने जातीय बन्धुओं का वाणी और क्रिया द्वारा आदर-सत्कार करे। वह प्रतिदिन उनका प्रिय ही करता रहें। कभी कोई अप्रिय कार्य न करे। उन पर विश्वास तो न करे; परंतु विश्वास करने वाले की ही भाँति सदा उनके साथ बर्ताव करे। उनमें दोष है या गुण इसका निर्णय करने की आवश्यकता नहीं दिखायी देती हैं। जो पुरूष सदा सावधान रहकर ऐसा बर्ताव करता है, उसके शत्रु भी प्रसन्न हो जाते हैं और उसके साथ मित्रता का बर्ताव करने लगते हैं। जो कुटुम्बी, सगे-सम्बन्धी, मित्र, शत्रु तथा मध्यस्थ व्यक्तियों की मण्डली में सदा इसी नीति से व्यवहार करता है, वह चिरकाल तक यशस्वी बना रहता हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वं के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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