महाभारत सभा पर्व अध्याय 24 श्लोक 25-41

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चतुर्विंश (24) अध्‍याय: सभा पर्व (जरासंधवध पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: चतुर्विंश अध्याय: श्लोक 25-41 का हिन्दी अनुवाद

अब वह उत्तम ध्वज सहस्त्रों किरणों से आवृत मध्याह काल के सूर्य की भाँति अपने तेज से अधिक प्रकाशित होने लगा। प्राणियों के लिये उसकी ओर देखना कठिन हो गया। वह वृक्षोंं में कहीं अटकता नहीं था, अस्त्र-शस्त्रों द्वारा कटता नहीं था। राजन्! वह दिवय और श्रेष्ठ ध्वज इस लोक के मनुष्यों को दृष्टिगोचर मात्र होता था। मेघ के समान गम्भीर घर्घर ध्वनि से परिपूर्ण उसी दिव्य रथ पर भीमसेन और अर्जुन के साथ बैठे हुए पुरुष सिंह भगवान् श्रीकृष्ण नगर से बाहर निकले। राजन्! इन्द्र से उस रथ को राजा वसु ने प्राप्त किया था। फिर क्रमश: वसु से बृहद्रथ को और बृहद्रथ से जरासंध को वह रथ मिला था। महायशस्वी कमलनयन महाबाहु श्रीकृष्ण गिरिब्रज से बाहर आ समतल भूमि पर खड़े हुए। जनमेजय! वहाँ ब्राह्मण आदि सभी नागरिकों ने शास्त्रीय विधि से उनका सत्कार एवं पूजन किया। कैद से छूटे हुए राजाओं ने भी मुधुसूदन की पूजा की और उनकी स्तुति करते हुए इस प्रकार कहा-। ‘महाबाहो! आप देवकी देवी को आनन्दित करने वाले साक्षात् भगवान् हैं, भीमसेन और अर्जुन का बल भी आपके साथ है। आपके द्वारा जो धर्म की रक्षा हो रही है, वह आप सरीखे धर्मावतार के लिये आश्चर्य की बात नहीं है।
‘प्रभो! हम सब राजा दु:खरूपी पंक से युक्त जरासंध रूपी भयानक कुण्ड में डूब रहे थे, आपने जो आज हमारा यह उद्धार किया है, वह आपके योग्य ही है। ‘विष्णो! अत्यन्त भयंकर पहाड़ी किले में कैद हो हम बड़े दु:ख से दिन काट रहे थे। यदुनन्दन! आपने हमें इस संकट से मुक्त करके अत्यन्त उज्जवल यश प्राप्त किया है, यह बड़े सौभाग्य की बात है। ‘पुरुषसिंह! हम आपके चरणों मं पड़े हैं। आप हमें आशा दीजिये, हम क्या सेवा करें? कोई दुष्कर कार्य हो तो भी आपको यह समझना चाहिये मानो हम सब राजाओं ने मिलकर उसे पूर्ण कर ही दिया’। तब महामाना भगवान् ह्रषीकेश ने उन सबको आश्वासन देकर कहा- ‘राजाओ! धर्मराज युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ करना चाहते हैं ।।३६।। ‘धम्र में तत्पर रहते हुए ही उन्हें सम्राट् पद प्राप्त करने की इच्छा हुई है। इस कार्य में तुम सब लोग उनकी सहायकता करो’। नृ¸पश्रेष्ठ जनमेजय! तब उन सभी राजाओं ने प्रसन्नचित्त हो ‘तथास्तु’ कहकर भगवान् की वह आशा शिरोधार्य कर ली। इतना ही नहीं, उन भूपालों ने दशार्हकुल भूषण भगवान को रत्न भेंट किये। भगवान् गोविन्द ने बड़ी कठिनाई से, उन सब पर कृपा करने के लिये ही, वह भेंट स्वीकार की। तदनन्तर जरासंध का पुत्र महामना सहदवे पुरोहित को आगे करके सेवकों और मन्त्रियों के साथ नगर से बाहल निकला। उसके आगे रत्नों का बहुत बड़ा भण्डार आ रहा था। सहदवे अत्यन्त विनीतभाव से चरणों में पड़कर नरदेव भगवान वासुदेव की शरण में आया था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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