महाभारत सभा पर्व अध्याय 33 श्लोक 30-48

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त्रयस्त्रिंश (33) अध्‍याय: सभा पर्व (राजसूय पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: त्रयस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 30-48 का हिन्दी अनुवाद

‘इन्द्रसेन, विशोक और अर्जुन का सारथि पूरु, ये मेरा प्रिय करने की इच्छा से अन्न आदि के संग्रह के काम पर जुट जायँ। ‘कुरुश्रेष्ठ! जिनको खाने की प्राय: सभी इच्छा करते हैं, वे रस और गन्ध से युक्त भाँति-भाँति के मिष्टान आदि तैयार कराये जायँ, जो ब्राह्मणों को उनकी इच्छा के अनुसार प्रीति प्रदान करने वाले हों'। धर्मराज युधिष्ठिर की यह बात समाप्त होते ही योद्धाओं में श्रेष्ठ सहदेव ने उनसे निवेदन किया, ‘यह सब व्यवस्था हो चुकी है’। राजन्! तदनन्तर द्वैपायन व्यासजी बहुत से ऋत्विजों को ले आये। वे महाभाग ब्राह्मण मानो साक्षात् मूर्तिमान बेद ही थे। स्वयं सत्यवजीनन्दन व्यास ने उस यज्ञ में ब्रह्मा का काम सँभाला। धनंजय गोत्रीय ब्राह्मणों में श्रेष्ठ सुसामा सामगान करने वाले हुए। और ब्रह्मनिष्ठ याज्ञवल्क्य उस यज्ञ के श्रेष्ठतम अध्वर्यु थे। वसुपुत्र पैल धौमय मुनि के साथ होता बने थे। भरतश्रेष्ठ! इनके पुत्र और शिष्यवर्ग के लोग, जो सब के सब वेद वेदांगों के पारंगत विद्वान थे, ‘होत्रग’ (सप्त होता) हुए। उन सबने पण्याहवाचन कराकर उस विधि का ऊहन (अर्थात् राजसूयेन यक्ष्ये, स्वाराज्यमवाघ्नवानि- मैं स्वाराज्य प्राप्त करूँ, इस उद्देश्य से राजसूययज्ञ करूँगा, इत्यादि रूप से संकल्प) कराकर शास्त्रोक्त विधि से उस महान् यज्ञस्थान का पूजन कराया। उस स्थान पर राजा की आज्ञा से शिल्पियों ने देव मन्दिरों के समान विशाल एवं सुगन्धित भवन बनाये। तदनन्तर राजशिरोमणि नरश्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर ने तुरंत ही मंत्री सहदेव को आज्ञा दी, ‘सब राजाओं तथा ब्राह्माणों को आमन्त्रित करने के लिये तुरंत ही शीघ्रागामी दूस भेजो।’ राजा की यह बात सुनकर सहदेव ने दूतों को भेजा और कहा- ‘तुमलोग सभी राज्यों में घूम-घूमकर वहाँ के राजाओं, ब्राह्मणों, वैश्यों तथा सब माननीय शूद्रों को निमन्त्रित कर दो और बुला ले आओ। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! तदनन्तर पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर के आदेश से सहदेव की आज्ञा पाकर सब शीघ्रगामी दूत गये और उन्होंने ब्राह्मण आदि सब वर्णों के लोगों को निमन्त्रित किया तथा बहुतों को वे अपने साथ ही शीघ्र बुला लाये। वे अपने से सम्बन्ध रखने वाले अन्य व्यक्तियों को भी साथ लाना न भूले। भारत! तदनन्तर वहाँ आये हुए सब ब्राह्मणों ने ठीक समय पर कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर को राजसूययज्ञ की दीक्षा दी। यज्ञ की दीक्षा लेकर धर्मात्मा धर्मराज युधिष्ठिर सहस्त्रों ब्राह्मणों से घिरे हुए यज्ञ मण्डप में गये। उस समय उनके सगे भाई, जाति बन्धु, सुहृय, सहायक अनेक देशों से आये हुए क्षत्रिय नरेश तथा मन्त्रिगण भी थे। नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर मूर्तिमान धर्म ही जान पड़ते थे। तत्पश्चात वहाँ भिन्न-भिन्न देशों से ब्राह्मण लोग आये, जो सम्पूर्ण विद्याओं में निष्णात तथा वेद वेदांगों के पारंगत विद्वान थे। धर्मराज की आज्ञा से हजारों शिल्पयों ने आत्मीयजनों के साथ आये हुए उन ब्राह्मणों के ठहरने के लिये पृथक-पृथक घर बनाये थे, जो बहुत से अन्न और वस्त्रों से परिपूर्ण थे और जिनमें सभी ऋतुओं में सुखपूर्वक रहने की सुविधाएँ थी। राजन! उन गृहों में वे ब्राह्मण लोग राजा से सत्कार पाकर निवास करने लगे। वहाँ वे नाना प्रकार की कथाएँ कहते और नट नर्तकों के खेल देखते थे। वहाँ भोजन करते और बोलते हुए आनन्दमग्‍न महात्मा ब्राह्मणों का निरन्तर महान कौलाहल सुनायी पड़ता था। ‘इनको दीजिये, इन्हें परोसिये, भोजन कीजिये, भोजन कीजिये’ इसी प्रकार के शब्द वहाँ प्रतिदिन कानों में पड़ते थे। भारत! धर्मराज युधिष्ठिर ने एख लाख गौएँ, अतनी ही शय्याएँ, एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ तथा उतनी ही अविवाहित युवतियाँ पृथक-पृथक ब्राह्मणों दान की। इस प्रकार स्वर्ग में इन्द्र की भांति भूमण्डल में अद्वितीय वीर महात्मा पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर का यह यज्ञ प्रारम्भ हुआ। तदनन्तर पुरुषोत्तम राजा युधिष्ठिर ने भीष्म, द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र, विदुर, कृपाचार्य तथा दुर्योधन आदि सब भाइयों एवं अपने में अनुराग रखने वाले अन्य जो लोग वहाँ रहते थे, उन सबको बुलाने के लिये पाण्डुपुत्र नकुल को हस्तिनापुर भेजा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत राजसूयपर्व में राजसूयदीक्षा विषयक तैंतीसवा अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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