महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 26

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अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 26 का हिन्दी अनुवाद

इस बलवान असुर ने बल के घमंड में आकर सम्पूर्ण विश्व के लिये वन्दनीय देवमाता अदिति को भी कष्ट पहुँचाया और उनके कुण्डल के लिये। इन्हीं सब कारणों से यह मारा गया है। भामिनि! मैंने इस समय जो कुछ किया है, उसके लिये तुम्हें मुझ पर क्षोभ नहीं करना चाहिये। महाभागे! तुम्हारे पुत्र ने मेरे प्रभाव से अत्यन्त उत्तम गति प्राप्त की है, इसलिये जाओ, मैंने तुम्हारा भार उतार दिया है। भीष्म कहते हैं- युधिष्ठिर! भूमिपुत्र नरकासुर को मारकर सत्यभामा सहित भगवान श्रीकृष्ण ने लोकपालों के साथ जाकर नरकासुर के घर को देखा । यशस्वी नरक के घर में जाकर उन्होंने नाना प्रकार के रत्न और अक्षय धन देखा। मणि, मोती, मूँगे, वैदूर्यमणि की बनी हुई वस्तुएँ, पुखराज, सूर्यकान्त मणि और निर्मल स्फटिक मणि की वस्तुएँ भी वहां देखने में आयीं। जाम्बूनद तथा शातकुम्भसज्ञक सुवर्ण की बनी हुई बहुत सी ऐसी वस्तुएँ वहाँ दृष्टिगोचर हुई, जो प्रज्वलित अग्रि और शीतरश्मि चन्द्रमा के समान प्रकाशित हो रही थी। नरकासुर का भीतरी भवन सुवर्ण के समान सुन्दर, कान्तिमान् एवं उज्जवल था। उसके घर में जो असंख्य एवं अक्षय धन दिखायी दिया, उतनी धनराशि राजा कुबेर के घर में भी नहीं है। देवराज इन्द्र के भवन में भी पहले कभी उतना वैभव नहीं देखा गया था। इन्द्र बोले- जनार्दन! ये जो नाना प्रकार के माणिक्य, रत्न, धन तथा सोने की जालियों से सुशोभित बड़े-बड़े हौदों वाले, तोमर सति पराक्रमशाली बड़े भारी गजराज एवं उन पर बिछाने के लिये मूँगे से विभूषित कम्बल, निर्मल पताकाओं से युक्त नाना प्रकार के वस्त्र आदि हैं, इन सब पर आपका अधिकार है। इन गजराजों की संख्या बीस हजार है तथा इससे दूनी हथिनियाँ हैं। जनार्दन! यहाँ आठ लाख उत्तम देशी घोड़े हैं और बैल जुते हुए नये-नये वाहन हैं। इनमें से जिनकी आपको आवश्यकता हो, वे सब आपके यहाँ जा सकते हैं। शत्रुदमन! ये महीन ऊनी वस्त्र, अनेक प्रकार की शय्याएँ, बहुत से आसन, इच्छानुसार बोली बोलने वाले देखने में सुन्दर पक्षी, चन्दन और अगुरुमिश्रित नाना प्रकार के रथ- ये सब वस्तुएँ मैं आपके लिये वृष्णियों के निवास स्ािान द्वारका में पहुँचा दूँगा। भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! देवता, गन्धर्व, दैत्य और असुर सम्बन्धी जितने भी रत्न नरकासुर के घर में उपलब्ध हुए, उन्हें शीघ्र ही गरुड़ पर रखकर देवराज इन्द्र दाशार्हवंश के अधिपति भगवान श्रीकृष्ण के साथ मणिपर्वत पर गये। वहाँ बड़ी पवित्र हावा बह रही थी तथा विचित्र एवं उज्जवल प्रभा सब ओर फैली हुुई थी। यह सब देखकर देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ। आकाशमण्डल में प्रकाशित होने वाले देवता, ऋषि, चन्द्रमा और सूर्य की भाँति वहाँ आये हुए देवगण उस पर्वत की प्रभा से तिरस्कृत हो साधारण से प्रतीत हो रहे थे। तदनन्तर बलरामजी तथा देवराज इन्द्र की आज्ञा से महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर के मणिपर्वत पर बने हुए अन्त:पुर में प्रसन्नता पूर्वक प्रवेश किया। मधुसूदन ने देखा, उस अन्त:पुर के द्वारा और गृह वैदूर्यमणि ने समान प्रकाशित हो रहे है। उनके फाटकों पर पताकाएँ फहरा रही थीं। सुवर्णमय विचित्र पताकाओं वाले महलों से सुशोीिात वह मणिपर्वत चित्रलिखित मेघों के समान प्रतीत होता था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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