महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 1 श्लोक 33-51

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प्रथम (1) अध्याय: सौप्तिकपर्व

महाभारत: सौप्तिक पर्व :प्रथम अध्याय: श्लोक 33-51 का हिन्दी अनुवाद

क्रोध से जलते रहने के कारण नींद उसके पास फटकने नहीं पाती थी। उस महाबाहु वीर ने भयंकर दिखायी देने वाले उस वन की ओर बारंबार दृष्टिपात किया । कुरूनन्दन ! उस वृक्ष पर सहस्त्रों कौए रात में बसेरा ले रहे थे। वे पृथक-पृथक घोंसलों का आश्रय लेकर सुख की नींद सो रहे थे । उन कौओं के सब ओर निर्भय होकर सो जाने पर अश्वत्थामा ने देखा कि सहसा एक भयानक उल्लू उधर आ निकला । उसकी बोली बड़ी भयंकर थी। डील-डौल भी बड़ा था। आंखें काले रंग की थी उसका शरीर भूरा और पिग्लद वर्ण का था। उसकी चोंच और पंजे बहुत बड़े थे और वह गरूड़ के समान वेगशाली जान पड़ता था । भरतनन्दरन ! वह पक्षी कोमल बोली बोलकर छिपता हुआ-सा गरगद की उस शाखा पर आने की इच्छाल करने लगा । कौओं के लिये कालरूपधारी उस विहगम ने वट वृक्ष की उस शाखा पर बड़े वेग से आक्रमण किया और सोये हुए बहुत-से कौओं को मार डाला । उसने अपने पंजों से अस्त्रक का काम लेकर किन्हीं कोओं के पंख नोच डाले किन्हीं के सिर काट लिये और किन्हीं के पैर तोड़ डाले। प्रजानाथ ! उस बलवान उल्लू ने जो-जो कौए उसकी दृष्टि में आयेएउन सबको क्षरण भर में मार डाला। इससे वह सारा वटवृक्ष कौओं के शरीरों तथा उनके विभिन्न अवयवों द्वारा सब ओर से आच्छांदित हो गया। वह शत्रुओं का संहार करने वाला उलूक उन कौओं का वध करके शत्रुओं से इच्छानुसार बदला लेकर बहुत प्रसन्ना हुआ। रात्रि में उल्लू के द्वारा किये गये उस कपटपूर्ण क्रूर कर्म को देखकर स्वयं भी वैसा ही करने का संकल्प लेकर अश्व‍त्थामा अकेला ही विचार करने लगा- । इस पक्षी ने युद्ध में क्या करना चाहिये इसका उपदेश मुझे दे दिया । मैं समझता हूँ कि मेरे लिये इसी प्रकार शत्रुओं के संहार करने का समय प्राप्त हुआ है । पाण्डव इस समय विजय से उल्लासित हो रहे हैं। वे बलवान उत्साही और प्रहार करने में कुशल हैं। उन्हें अपना लक्ष्य प्राप्त हो गया है। ऐसी अवस्था में आज मैं अपनी शक्ति से उनका वध नहीं कर सकता । इधर मैंने राजा दुर्योधन के समीप पाण्‍डवों के वध की प्रतिज्ञा कर ली है। परंतु यह कार्य वैसा ही है जैसा पतिंगों का आग में कूद पड़ना। मैंने जिस वृति का आश्रय लेकर पूर्वोक्त प्रतिज्ञा की है वह मेरा ही विनाश करने वाली है। इसमें संदेह नहीं कि यदि मैं न्याय के अनुसार युद्ध करूँगा तो मुझे अपने प्राणों का परित्याग करना पड़ेगा । यदि छल से काम लूँ तो अवश्य मेरे अभीष्ट मनोरथ की सिद्धि हो सकती है। शत्रुओं का महान संहार भी तभी संभव होगा। जहां सिद्धि मिलने में संदेह हो उसकी अपेक्षा उस उपाय का अवलम्बयन करना उत्तम है जिसमें संशय के लिये स्थान न हो। साधारण लोग तथा शास्त्रज्ञ पुरूष भी उसी का अधिक आदर करते हैं । इस लोक में जिस कार्य को ग्रर्हणीय समझा जाता हो जिसकी सब लोग भरपेट निन्दा करते होंए वह भी क्षत्रियधर्म के अनुसार बर्ताव करने वाले मनुष्यस के लिये कर्तव्य माना गया है । अपवित्र अन्त‍यकरण वाले पाण्डवों ने भी तो पद-पद पर ऐसे कार्य किये हैं जो सब-के-सब निन्दा और घृणा के योग्य रहे हैं। उनके द्वारा भी अनेक कपटपूर्ण कर्म किये ही गये हैं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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