श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 20 श्लोक 1-11
एकादश स्कन्ध : विंशोऽध्यायः (20)
ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग उद्धवजी ने कहा—कमलनयन श्रीकृष्ण! आप सर्वशक्तिमान् हैं। आपकी आज्ञा ही वेद है; उसमें जो कुछ कर्मों को करने की विधि है और कुछ के करने का निषेध है। यह विधि-निषेध कर्मों के गुण और दोष की परीक्षा करके ही तो होता है । वर्णाश्रम-भेद, प्रतिलोम और अनुलोम रूप वर्णसंकर, कर्मों के उपयुक्त और अनुपयुक्त द्रव्य, देश, आयु और काल तथा स्वर्ग और नरक के भेदों का बोध भी वेदों से ही होता है । इसमें सन्देह नहीं कि आपकी वाणी ही वेद है, परन्तु उसमें विधि-निषेध ही तो भरा पड़ा है। यदि उसमें गुण और दोष में भेद करने वाली दृष्टि न हो, तो वह प्राणियों का कल्याण करने में समर्थ ही कैसे हो ? सर्वशक्तिमान् परमेश्वर! आपकी वाणी वेद ही पितर, देवता और मनुष्यों के लिये श्रेष्ठ मार्ग-दर्शन का काम करता है; क्योंकि उसी के द्वारा स्वर्ग-मोक्ष आदि अदृष्ट वस्तुओं का बोध होता है और इस लोक में भी किसका कौन-सा साध्य है और क्या साधन—इसका निर्णय भी उसी से होता है । प्रभो! इसमें सन्देह नहीं कि गुण और दोषों में भेददृष्टि आपकी वाणी देव के अनुसार है, किसी की अपनी कल्पना नहीं; परन्तु प्रश्न तो यह है कि आपकी वाणी ही भेद का निषेध भी करती है। यह विरोध देखकर मुझे भ्रम हो रहा है। आप कृपा करके मेरा यह भ्रम मिटाइये । भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—प्रिय उद्धव! मैंने ही वेदों में एवं अन्यत्र भी मनुष्यों का कल्याण करने के लिये अधिकारिभेद से तीन प्रकार के योगों का उपदेश किया हैं। वे हैं—ज्ञान, कर्म और भक्ति। मनुष्य के परम कल्याण के लिये इनके अतिरिक्त और कोई उपाय कहीं नहीं है । उद्धवजी! जो लोग उनका त्याग कर चुके हैं, वे ज्ञानयोग के अधिकारी हैं। इसके विपरीत जिनके चित्त में कर्मों और उनके फलों से वैराग्य नहीं हुआ है, उसमें दुःखबुद्धि नहीं हुई है, वे सकाम व्यक्ति कर्मयोग के अधिकारी हैं। जो पुरुष न तो अत्यन्त विरक्त हैं और न अत्यन्त आसक्त ही है तथा किसी पूर्वजन्म के शुभकर्म से सौभाग्यवश मेरी लीला-कथा आदि में उसकी श्रद्धा हो गयी है, वह भक्तियोग का अधिकारी है। उसे भक्तियोग के द्वारा ही सिद्धि मिल सकती है । कर्म के सम्बन्ध में जितने भी विधि-निषेध हैं, उनके अनुसार तभी तक कर्म करना चाहिये, जब तक कर्ममय जगत् और उससे प्राप्त होने वाले स्वर्गादि सुखों से वैराग्य न हो जाय अथवा जब तक मेरी लीला-कथा के श्रवण-कीर्तन में श्रद्धा न हो जाय । उद्धव! इस प्रकार अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल धर्म में स्थित रहकर यज्ञों के द्वारा बिना किसी आशा और कामना के मेरी आराधना करता रहे और निषिद्ध कर्मों से दूर रहकर केवल विहित कर्मों का ही आचरण करे तो उसे स्वर्ग या नरक में नहीं जाना पड़ता । अपने धर्म में निष्ठा रखने वाला पुरुष इस शरीर में रहते-रहते ही निषिद्ध कर्म का परित्याग कर देता है और रागादि मलों से भी मुक्त—पवित्र हो जाता है। इसी से अनायास ही उसे आत्मसाक्षात्कार रूप विशुद्ध तत्वज्ञान अथवा द्रुत-चित्त होने पर मेरी भक्ति प्राप्त होती है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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