श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 20 श्लोक 32-37
एकादश स्कन्ध : विंशोऽध्यायः (20)
कर्म, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, योगाभ्यास, दान, धर्म और दूसरे कल्याण साधनों से जो कुछ स्वर्ग, अपवर्ग, मेरा परम धाम अथवा कोई भी वस्तु प्राप्त होती है, वह सब मेरा भक्त मेरे भक्तियोग के प्रभाव से ही, यदि चाहे तो, अनायास प्राप्त कर लेता है । मेरे अनन्य प्रेमी एवं धैर्यवान् साधु भक्त स्वयं तो कुछ चाहते ही नहीं; यदि मैंने उन्हें देना चाहता हूँ और देता भी हूँ तो भी दूसरी वस्तुओं की तो बात ही क्या—वे कैवल्य-मोक्ष भी नहीं लेना चाहते । उद्धवजी! सबसे श्रेष्ठ एवं महान् निःश्रेयस (परम कल्याण) तो निरपेक्षता का ही दूसरा नाम है। इसलिए जो निष्काम और निरपेक्ष होता है, उसी को मेरी भक्ति प्राप्त होती है । मेरे अनन्यप्रेमी भक्तों का और उन समदर्शी महात्माओं का; जो बुद्धि से अतीत परमतत्व को प्राप्त हो चुके हैं, इन विधि और निषेध से होने वाले पुण्य और पाप से कोई सम्बन्ध ही नहीं होता । इस प्रकार जो लोग मेरे बतालाये हुए इन ज्ञान, भक्ति और कर्मयोगों का आश्रय लेते हैं, वे मेरे परम कल्याण-स्वरुप धाम को प्राप्त होते हैं, क्योंकि वे परब्रम्हतत्व को जान लेते हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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