श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 21 श्लोक 20-28
एकादश स्कन्ध : एकविंशोऽध्यायः (21)
कलह से असह्य क्रोध की उत्पत्ति होती है और क्रोध के समय अपने हित-अहित का बोध नहीं रहता, अज्ञान छा जाता है। इस अज्ञान से शीघ्र ही मनुष्य की कार्याकार्य का निर्णय करने वाली व्यापक चेतना शक्ति लुप्त हो जाती है । साधो! चेतना-शक्ति अर्थात् स्मृति के लुप्त हो जाने पर मनुष्य में मनुष्यता नहीं रह जाती, पशुता आ जाती है और वह शून्य के समान अस्तित्व हीन हो जाता है। अब उसकी अवस्था वैसी ही हो जाती है, जैसे कोई मुर्च्छित या मुर्दा हो। ऐसी स्थिति में न तो उसका स्वार्थ बनता है और न तो परमार्थ विषयों का चिन्तन करते-करते वह विषय रूप हो जाता है। उसका जीवन वृक्षों के समान जड हो जाता है। उसके शरीर में उसी प्रकार व्यर्थ श्वास चलता रहता है, जैसे लुहार की धौंकनी की हवा। उसे न अपना ज्ञान रहता है और न किसी दूसरे का। वह सर्वथा आत्म-वञ्न्चित हो जाता है । उद्धवजी! यह स्वर्गादि रूप फल का वर्णन करने वाली श्रुति मनुष्यों के लिये उन-उन लोकों को परम पुरुषार्थ नहीं बतलाती; परन्तु बहिर्मुख पुरुषों के लिये अन्तःकरण शुद्धि के द्वारा परम कल्याणमय मोक्ष की विवक्षा से ही कर्मों में रूचि उत्पन्न करने के लिये वैसा वर्णन करती है। जैसे बच्चों से ओषधि में रूचि उत्पन्न करने के लिये रोचल वाक्य कहे जाते हैं। (बेटा! प्रेम से गिलोय का काढ़ा पी लो तो तुम्हारी चोटी बढ़ जायगी) । इसमें सन्देह नहीं कि संसार विषय-भोगों में, प्राणों में और सगे-सम्बन्धियों में सभी मनुष्य जन्म से ही आसक्त हैं और उन वस्तुओं की आसक्ति उनकी आत्मोन्नति में बाधक एवं अनर्थ का कारण है । वे अपने परम पुरुषार्थ को नहीं जानते, इसलिये स्वर्गादि का जो वर्णन मिलता है, वह ज्यों-का-त्यों सत्य है—ऐसा विश्वास करके देवादि योनियों में भटकते रहते हैं और फिर वृक्ष आदि योनियों के घोर अन्धकार में आ पड़ते हैं। ऐसी अवस्था में कोई भी विद्वान् अथवा वेद फिर से उन्हें उन्हीं विषयों में क्यों प्रवृत्त करेगा ? दुर्बुद्धि लोग (कर्मवादी) वेदों का यह अभिप्राय न समझकर कर्मासक्ति वश पुष्पों के समान स्वर्गादि लोकों का वर्णन देखते हैं और उन्हीं को परम फल मानकर भटक जाते हैं। परन्तु वेदवेत्ता लोग श्रुतियों का ऐसा तात्पर्य नहीं बतलाते । विषय-वासनाओं में फँसे हुए दीन-हीन, लोभी पुरुष रंग-बिरंगे पुष्पों के समान स्वर्गादि लोकों को ही सब कुछ समझ बैठते हैं, अग्नि के द्वारा सिद्ध होने वाले यज्ञ-यागादि कर्मों में ही मुग्ध हो जाते हैं। उन्हें अन्त में देवलोक, पितृलोक आदि की ही प्राप्ति होती है। दूसरी ओर भटक जाने के कारण उन्हें अपने निज धाम आत्मपद का पता नहीं लगता । प्यारे उद्धव! उनके पास साधना है तो केवल कर्म की और उसका कोई फल है तो इन्द्रियों की तृप्ति। उनकी आँखें धुँधली हो गयी हैं; इसी से वे यह बात नहीं जानते कि जिससे इस जगत् की उत्पत्ति हुई है, जो स्वयं इस जगत् के रूप में हैं, वह परमात्मा मैं उनके ह्रदय में हूँ ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-