श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 28 श्लोक 1-7

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एकादश स्कन्ध : अष्टाविंशोऽध्यायः (28)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: अष्टाविंशोऽध्यायः श्लोक 1-7 का हिन्दी अनुवाद


परमार्थ निरूपण भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी! यद्यपि व्यवहार में पुरुष और प्रकृति—द्रष्टा और दृश्य के भेद से दो प्रकार का जगत् जान पड़ता है, तथापि परमार्थ-दृष्टि से देखने पर यह सब एक अधिष्ठान-स्वरुप ही है; इसलिये किसी के शान्त, घोर और मूढ़ स्वभाव तथा उनके अनुसार कर्मों की न स्तुति करनी चाहिये और न निन्दा। सर्वदा अद्वैत-दृष्टि रखनी चाहिये । जो पुरुष दूसरों के स्वभाव और उनके कर्मों की प्रशंसा अथवा निन्दा करते हैं, वे शीघ्र ही अपने यथार्थ परमार्थ-साधन से च्युत हो जाते हैं; क्योंकि साधन तो द्वैत के अभिनिवेश का—उसके प्रति सत्यत्व-बुद्धि का निषेध करता है और प्रशंसा तथा निन्दा उसकी सत्यता के भ्रम को और भी दृढ़ करती हैं । उद्धवजी! सभी इन्द्रियाँ राजस अहंकार के कार्य हैं। जब वे निद्रित हो जाती हैं तब शरीर का अभिमानी जीव चेतना शून्य हो जाता है; अर्थात् उसे बाहरी शरीर की स्मृति नहीं रहती। उस समय यदि मन बच रहा, तब तो वह सपने के झूठे दृश्यों में भटकने लगता है और वह भी लीन हो गया, तब तो जीव मृत्यु के समान गाढ़ निद्रा—सुषुप्ति में लीन हो जाता है। वैसे ही सब जीव अपने अद्वितीय आत्मस्वरुप को भूलकर नाना वस्तुओं का दर्शन करने लगता है तब वह स्वप्न के समान झूठे दृश्यों में फँस जाता है; अथवा मृत्यु के समान अज्ञान में लीन हो जाता है । उद्धवजी! जब द्वैत नाम की कोई वस्तु ही नहीं है, तब उसमें अमुक वस्तु भली है और अमुक बुरी, अथवा इतनी भली और इतनी बुरी है—यह प्रश्न ही नहीं उठ सकता। विश्व की सभी वस्तुएँ वाणी से कही जा सकती हैं अथवा मन से सोची जा सकती हैं; इसलिये दृश्य एवं अनित्य होने के कारण उनका मिथ्यात्व तो स्पष्ट ही है । परछाईं, प्रतिध्वनि और सीपी आदि में चाँदी आदि के आभास यद्यपि हैं तो सर्वथा मिथ्या, परन्तु उनके द्वारा मनुष्य के ह्रदय में भय-कम्प आदि का संचार हो जाता है। वैसे ही देहादि सभी वस्तुएँ हैं तो सर्वथा मिथ्या ही, परन्तु जब तक ज्ञान के द्वारा इनकी असत्यता का बोध नहीं हो जाता, इनकी आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं हो जाती, तब तक ये भी अज्ञानियों को भयभीत करती रहती हैं । उद्धवजी! जो कुछ प्रत्यक्ष या परोक्ष वस्तु है, वह आत्मा ही है। वही सर्वशक्तिमान् भी है। जो कुछ विश्व-सृष्टि प्रतीत हो रही है, इसका वह निमित्त-कारण तो है ही, उपादान-कारण भी है, वही रक्षक है और रक्षित भी वही है। सर्वात्मा भगवान ही इसका संहार करते हैं और जिसका संहार होता है, वह भी वे ही हैं । अवश्य ही व्यवहार दृष्टि से देखने पर आत्मा इस विश्व से भिन्न है; परन्तु आत्म दृष्टि से उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु ही नहीं है। उसके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा है, उसका किसी भी प्रकार निर्वचन नहीं किया जा सकता और अनिर्वचनीय तो केवल आत्मस्वरुप ही है; इसलिये आत्मा एन सृष्टि-स्थिति संहार अथवा अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत—ये तीन-तीन प्रकार की प्रतीतियाँ सर्वथा निर्मूल ही हैं। न होने पर भी यों ही प्रतीत हो रही हैं। यह सत्व, रज और तम के कारण प्रतीत होने वाली द्रष्टा-दर्शन-दृश्य आदि की त्रिविधता माया का खेल है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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