श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 29 श्लोक 1-9
एकादश स्कन्ध : एकोनत्रिंशोऽध्यायः (29)
भागवत धर्मों का निरूपण और उद्धवजी का बदरिकाश्रम गमन
उद्धवजी कहते हैं—अच्युत! जो अपना मन वश में नहीं कर सका है, उसके लिये आपकी बतलायी हुई इस योग साधना को तो मैं बहुत ही कठिन समझता हूँ। अतः अब आप कोई ऐसा सरल और सुगम साधन बतलाइये, जिससे मनुष्य अनायास ही परमपद प्राप्त कर सके । कमलनयन! आप जानते ही हैं कि अधिकांश योगी जब अपने मन को एकाग्र करने लगते हैं, तब वे बार-बार चेष्टा करने पर भी सफल न होने के कारण हार मान लेते हैं और उसे वश में न कर पाने के कारण दुःखी हो जाते हैं । पद्मलोचन! आप विश्वेश्वर है! आपके ही द्वारा सारे संसार का नियमन होता है। इसी से सारासार-विचार में चतुर मनुष्य आपके आनन्दवर्षी चरणकमलों की शरण लेते हैं और अनायास ही सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। आपकी माया उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती; क्योंकि उन्हें योग साधन और कर्मानुष्ठान का अभिमान नहीं होता। परन्तु जो आपकी चरणों का आश्रय नहीं लेते, वे योगी और कर्मी अपने साधन के घमंड से फूल जाते हैं; अवश्य ही आपकी माया ने उनकी मति हर ली है । प्रभो! आप सबके हितैषी सुहृद् हैं। आप अपने अनन्य शरणागत बलि आदि सेवकों के अधीन हो जायँ, यह आपके लिये कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि आपने रामावतार ग्रहण करके प्रेम वश वानरों से भी मित्रता का निर्वाह किया। यद्यपि ब्रम्हा आदि लोकेश्वरगण भी आने दिव्य किरीटों को आपके चरणकमल रखने की चौकी पर रगड़ते रहते हैं । प्रभो! आप सबके प्रियतम, स्वामी और आत्मा हैं। आप अपने अनन्य शरणागतों को सब कुछ दे देते हैं। आपने बलि-प्रह्लाद आदि अपने भक्तों को जो कुछ दिया है, उसे जानकर ऐसा कौन पुरुष होगा जो आपको छोड़ देगा ? यह बात किसी प्रकार बुद्धि में ही नहीं आती कि भला, कोई विचारवान् विस्मृति के गर्त में डालने वाले तुच्छ विषयों में ही फँसा रखने वाले भोगों को क्यों चाहेगा ? हम लोग आपके चरणकमलों की रज के उपासक हैं। हमारे लिये दुर्लभ ही क्या है ? भगवन्! आप समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में अन्तर्यामी रूप से और बाहर गुरु रूप से स्थित होकर उनके सारे पाप-तप मिटा देते हैं और अपने अपने वास्तविक स्वरुप को उनके प्रति प्रकट कर देते हैं। बड़े-बड़े ब्रम्हज्ञानी ब्रम्हाजी के समान लंबी आयु पाकर भी आपके उपकारों का स्मरण करके क्षण-क्षण अधिकाधिक आनन्द का अनुभव करते रहते हैं ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण ब्रम्हादि ईश्वरों के भी ईश्वर हैं। वे ही सत्व-रज आदि गुणों के द्वारा ब्रम्हा, विष्णु और रूद्र का रूप धारण करके जगत् की उत्पत्ति-स्थिति आदि के खेल खेला करते हैं। जब उद्धवजी ने अनुराग भरे चित्त से उनसे यह प्रश्न किया, तब उन्होंने मन्द-मन्द मुसकराकर बड़े प्रेम से कहना प्रारम्भ किया ।
श्रीभगवान ने कहा—प्रिय उद्धव! अब मैं तुम्हें अपने उन मंगलमय भागवतधर्मों का उपदेश करता हूँ, जिनका श्रद्धापूर्वक आचरण करके मनुष्य संसार रूप दुर्जय मृत्यु को अनायास ही जीत लेता है । उद्धवजी! मेरे भक्त को चाहिये कि अपने सारे कर्म मेरे लिये ही करे और धीरे-धीरे उनको करते समय मेरे स्मरण का अभ्यास बढ़ाये। कुछ ही दिनों में उसके मन और चित्त मुझमें समर्पित हो जायँगे। उसके मन और आत्मा मेरे ही धर्मों में रम जायँगे ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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