श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 32-36
एकादश स्कन्ध: तृतीयोऽध्यायः (3)
उनके ह्रदय की बड़ी विलक्षण स्थिति होती है। कभी-कभी वे इस प्रकार चिन्ता करने लगते हैं कि अब तक भगवान नहीं मिले, क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, किसे पूछूँ, कौन मुझे उनकी प्राप्ति करावे ? इस तरह सोचते-सोचते वे रोने लगते हैं तो कभी भगवान की लीला की स्फूर्ति हो जाने से ऐसा देखकर कि परमैश्वर्यशाली भगवान गोपियों के डर से छिपे हुए हैं, खिलखिलाकर हँसने लगते हैं। कभी-कभी उनके प्रेम और दर्शन की अनुभूति से आनन्दमग्न हो जाते हैं तो कभी लोकातीत भाव में स्थित होकर भगवान के साथ बातचीत करने लगते हैं। कभी मनो उन्हें सुना रहे हों, इस प्रकार उनके गुणों का गान छेड़ देते हैं और कभी नाच-नाचकर उन्हें रिझाने लगते हैं। कभी-कभी उन्हें अपने पास न पाकर इधर-उधर ढूँढने लगते हैं तो कभी-कभी उनसे एक होकर, उसकी सन्निधि में स्थित होकर परम शान्ति का अनुभव करते और चुप हो जाते हैं । राजन्! जो इस प्रकार भागवतधर्मों की शिक्षा ग्रहण करता है, उसे उनके द्वारा प्रेम-भक्ति की प्राप्ति हो जाती है और वह भगवान नारायण के परायण होकर उस माया को अनायास ही पार कर जाता है, जिसके पंजे से निकलना बहुत ही कठिन है ।
राजा निमि ने पूछा—महर्षियों! आप लोग परमात्मा का वास्तविक स्वरुप जानने वालों में सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिए मुझे यह बतलाइये कि जिस परब्रम्ह परमात्मा का ‘नारायण’ नाम से वर्णन किया जाता है, उनका स्वरुप क्या है ?
अब पाँचवे योगीश्वर पिप्पलायनजी ने कहा—राजन्! जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का निमित्त कारण और उपादान-कारण दोनों ही है, बनने वाला भी है और बनाने वला भी—परन्तु स्वयं कारणरहित हैं; जो स्वप्न, जाग्रत् और सुषुप्ति अवस्थाओं में उनके साक्षी के रूप में विद्यामान रहता है और उनके अतिरिक्त समाधि में भी ज्यों-का-त्यों एकरस रहता है; जिसकी सत्ता से ही सत्तावान् होकर शरीर, इन्द्रिय, प्राण और अन्तःकरण अपना-अपना काम करने में समर्थ होते हैं, उसी परम सत्य वस्तु को आप ‘नारायण’ समझिये । जैसे चिनगारियाँ न तो अग्नि को प्रकाशित ही कर सकती हैं और न जला ही सकती हैं, वैसे ही उस परमतत्त्व में—आत्मस्वरुप में न तो मन की गति है और न वाणी की, नेत्र उसे देख नहीं सकते और बुद्धि सोच नहीं सकती, प्राण और इन्द्रियाँ तो उसके पास तक नहीं फटक पातीं। ‘नेति-नेति’—इत्यादि श्रुतियों के शब्द भी वह यह है—इस रुप में उसका वर्णन नहीं करते, बल्कि उसको बोध कराने वाले जितने भी साधन हैं, उनका निषेध करके तात्पर्यरूप से अपना मूल—निषेध का मूल लक्षित करा देते हैं; क्योंकि यदि निषेध के आधार की, आत्मा की सत्ता न हो तो निषेध कौन कर रहा है, निषेध की वृत्ति किसमें है—इन प्रशों का कोई उत्तर ही न रहे, निषेध की ही सिद्धि न हो ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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