श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 68-74
एकादश स्कन्ध: सप्तमोऽध्यायः (7)
‘मैं अभागा हूँ, दुर्मति हूँ। हाय, हाय! मेरा तो सत्यानाश हो गया। देखो, देखो, न मुझे अभी तृप्ति हुई और न मेरी आशाएँ ही पूरी हुईं। तब तक मेरा धर्म, अर्थ और काम का मूल यह गृहस्थाश्रम ही नष्ट हो गया । हाय! मेरी प्राणप्यारी मुझे ही अपना इष्टदेव समझती थी; मेरी एक-एक बात मानती थी, मेरे इशारे पर नाचती थी, सब तरह से मेरे योग्य थी। आज वह मुझे सूने घर में छोड़कर हमारे सीधे-साद निश्छल बच्चों के साथ स्वर्ग सिधार रही है । मेरे बच्चे मर गये। मेरी पत्नी जाती रही है। मेरा अब संसार में क्या काम है ? मुझ दीन का यह विधुर जीवन—बिना गृहणी के जीवन जलन का—व्यथा का जीवन है। अब मैं इस सूने घर में किसके लिये जिऊँ ?
राजन्! कबूतर के बच्चे जाल में फँसकर तड़फड़ा रहे थे, स्पष्ट दीख रहा था कि वे मौत के पंजे में हैं, परन्तु वह मूर्ख कबूतर यह सब देखते हुए भी इतना दीन हो रहा था कि स्वयं जान-बूझकर जाल में कूद पड़ा । राजन्! वह बहेलिया बड़ा क्रूर था। गृहस्थाश्रमी कबूतर-कबूतरी और उनके बच्चों के मिल जाने से उसे बड़ी प्रसन्नता हुई; उसने समझा मेरा काम बन गया और वह उन्हें लेकर चलता बना । जो कुटुम्बी है–, विषयों और लोगों के संग-साथ में ही जिसे सुख मिलता है एवं अपने कुटुम्ब के भरण-पोषण में ही जो सारी सुध-बुध खो बैठा है, उसे कभी शान्ति नहीं मिल सकती। वह उसी कबूतर के समान अपने कुटुम्ब के साथ कष्ट पता है । यह मनुष्य-शरीर मुक्ति का खुला हुआ द्वार है। इसे पाकर भी जो कबूतर की तरह अपनी घर-गृहस्थी में ही फँसा हुआ है, वह बहुत ऊँचे तक चढ़कर गिर रहा है। शास्त्र की भाषा में वह ‘आरूढ़च्युत’ है ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-