श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 24-33
एकादश स्कन्ध: अष्टमोऽध्यायः (8)
नररत्न! उसे पुरुष की नहीं, धन की कामना थी और उसके मन में यह कामना इतनी दृशमूल हो गयी थी कि वह किसी भी पुरुष को उधर से आते-जाते देखकर यही सोचती कि यह कोई धनी है और मुझे धन देकर उपभोग करने के लिये ही आ रहा है ।
जब आने-जाने वाले आगे बढ़ जाते, तब फिर वह संकेतजीविनी वेश्या यही सोचती कि अवश्य ही अबकी बार कोई ऐसा धनी मेरे आवेगा जो मुझे बहुत-सा धन देगा । उसके चित्त की यह दुराशा बढ़ती ही जाती थी। वह दरवाजे पर बहुत देर तक टँगी रही। उसकी नींद भी जाती रही। वह कभी बाहर आती तो कभी भीतर जाती। इस प्रकार आधी रात हो गयी ।
राजन्! सचमुच आशा और सो भी धन की धन की—बहुत बुरी है। धनी की बाट जोहते-जोहते उसका मुँह सूख गया, चित्त व्याकुल हो गया। अब उसे इस वृत्ति से बड़ा वैराग्य हुआ। उसमें दुःख-बुद्धि हो गयी। इसमें सन्देह नहीं कि इस वैराग्य का कारण चिन्ता ही थी। परन्तु ऐसा वैराग्य भी है तो सुख अहि हेतु । जब पिंगला के चित्त में इस प्रकार वैराग्य की भावना जाग्रत् हुई, तब उसने एक गीत गाया।वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ। राजन्! मनुष्य आशा की फाँसी पर लटक रहा है। इसको तलवार की तरह काटने वाली यदि कोई वस्तु है तो वह केवल वैराग्य है ॥ २८ ॥ प्रिय राजन्! जिसे वैराग्य नहीं हुआ है, जो इन बखेड़ों से ऊबा नहीं है, वह शरीर और इसके बन्धन से उसी प्रकार मुक्त नहीं होना चाहता, जैसे अज्ञानी पुरुष ममता छोड़ने की इच्छा भी नहीं करता ।
पिंगला ने यह गीत गाया था—हाय! हाय! मैं इन्द्रियों के अधीन हो गयी। भला! मेरे मोह का विस्तार तो देखो, मैं इन दुष्ट पुरुषों से, जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है, विषय सुख की लालसा करती हूँ। कितने दुःख की बात है! मैं सचमुच मूर्ख हूँ । देखो तो सही, मेरे निकट-से-निकट ह्रदय में ही मेरे सच्चे स्वामी भगवान विराजमान हैं। वे वास्तविक प्रेम, सुख और परमार्थ का सच्चा धन भी देंदे वाले हैं। जगत् के पुरुष अनित्य हैं और वे नित्य हैं। हाय! हाय! मैंने उनको तो छोड़ दिया और उन तुच्छ मनुष्यों का सेवन किया जो मेरी एक भी कामना पूरी नहीं कर सकते; उलटे दुःख-भय, आधि-व्याधि, शोक और मोह ही देते हैं। यह मेरी मुर्खता की हद है कि मैं उनका सेवन करती हूँ । बड़े खेद की बात है, मैंने अत्यन्त निन्दनीय आजीविका वेश्यावृति का आश्रय लिया और व्यर्थ में अपने शरीर और मन को क्लेश दिया, पीड़ा पहुँचायी। मेरा यह शरीर बिक गया है। लम्पट, लोभी और निन्दनीय मनुष्यों ने इसे खरीद लिया है और मैं इतनी मूर्ख हूँ कि इसी शरीर से धन और रति-सुख चाहती हूँ। मुझे धिक्कार है! ।
यह शरीर एक घर है। इसमें हड्डियों के टेढ़े-तिरछे बाँस और खंभे लगे हुए हैं; चाम, रोएँ और नाखूनों से यह छाया गया है। इसमें नौ दरवाजे हैं, जिनसे मल निकलते ही रहते हैं। इसमें संचित सम्पत्ति के नाम पर केवल मल और मूत्र है। मेरे अतिरिक्त ऐसी कौन स्त्री है जो इस स्थूल शरीर को अपना प्रिय समझकर सेवन करेगी ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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