श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 25-33

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एकादश स्कन्ध: नवमोऽध्यायः (9)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: नवमोऽध्यायः श्लोक 25-33 का हिन्दी अनुवाद


यह शरीर भी मेरा गुरु ही है; क्योंकि यह मुझे विवेक और वैराग्य की शिक्षा देता है। मरना और जीना तो इसके साथ लगा ही रहता है। इस शरीर को पकड़ रखने का फल यह है कि दुःख-पर-दुःख भोगते जाओ। यद्यपि इस शरीर से तत्वविचार करने में सहायता मिलती है, तथापि मैं इसे अपना कभी नहीं समझता; सर्वदा यही निश्चय रखता हूँ कि एक दिन इसे सियार-कुत्ते खा जायँगे। इसीलिए मैं इससे असंग होकर विचरता हूँ । जीव जिस शरीर का प्रिय करने के लिये ही अनेकों प्रकार की कामनाएँ और कर्म करता है तथा स्त्री-पुत्र, धन-दौलत, हाथी-घोड़े, नौकर-चाकर, घर-द्वार और भाई-बन्धुओं का विस्तार करते हुए उनके पालन-पोषण में लगा रहता है। बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ सहकर धनसंचय करता है। आयुष्य पूरी होने पर वही शरीर स्वयं तो नष्ट होता ही है, वृक्ष के समान दूसरे शरीर के लिये बीज बोकर उसके लिये भी दुःख की व्यवस्था कर जाता है । जैसे बहुत-सी सौतें अपने एक पति को अपनी-अपनी ओर खींचती हैं, वैसे ही जीव को जीभ एक ओर—स्वादिष्ट पदार्थों की ओर खींचती है तो प्यास दूसरी ओर—जल की ओर; जननेद्रिय एक ओर—स्त्री संभोग की ओर ले जाना चाहती है तो त्वचा, पेट और कान दूसरी ओर—कोमल स्पर्श, भोजन और मधुर शब्द की ओर खींचने लगते हैं। नाक कहीं सुन्दर गन्ध सूँघने के लिये ले जाना चाहती है तो चंचल नेत्र कहीं दूसरी ओर सुन्दर रूप देखते के लिये। इस प्रकार कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ दोनों ही इसे सताती रहती हैं । वैसे तो भगवान ने अपनी अचिन्त्य शक्ति माया से वृक्ष, सरीसृप (रेंगने वाले जन्तु) पशु, पक्षी, डांस और मछली आदि अनेकों प्रकार की योनियाँ रचीं; परन्तु उनसे उन्हें सन्तोष न हुआ। तब उन्होंने मनुष्य शरीर की सृष्टि की। यह ऐसी बुद्धि से युक्त है जो ब्रम्ह का साक्षात्कार कर सकती है। इसकी रचना करके वे बहुत आनन्दित हुए । यद्यपि यह मनुष्य शरीर है तो अनित्य ही—मृत्यु सदा इसके पीछे लगी रहती है। इससे परमपुरुषार्थ की प्राप्ति हो सकती है; इसलिए अनेक जन्मों के बाद यह अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर पाकर बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि शीघ्र-से-शीघ्र, मृत्यु के पहले ही मोक्ष-प्राप्ति का प्रयत्न कर ले। इस जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष ही है। विषय-भोग तो सभी योनियों में प्राप्त हो सकते हैं, इसलिये उनके संग्रह में यह अमूल्य जीवन नहीं खोना चाहिये । राजन्! यही सब सोच-विचारकर मुझे जगत् से वैराग्य हो गया। मेरे ह्रदय में ज्ञान-विज्ञान की ज्योति जगमगाती रहती है। न तो कहीं मेरी आसक्ति है और न कहीं अहंकार ही। अब मैं स्वच्छन्द रूप से इस पृथ्वी में विचरण करता हूँ । राजन्! अकेले गुरु से ही यथेष्ट और सुदृढ़ बोध नहीं होता, उसके लिये अपनी बुद्धि से भी बहुत कुछ सोचने-समझने की आवश्यकता है। देखो! ऋषियों ने एक ही अद्वितीय ब्रम्ह का अनेकों प्रकार से गान किया है। (यदि तुम स्वयं विचारकर निर्णय न करोगे तो ब्रम्ह के वास्तविक स्वरुप को कैसे जान सकोगे ?) । भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—प्यारे उद्धव! गम्भीर बुद्धि अवधूत दत्तात्रेय ने राजा यदु को इस प्रकार उपदेश किया। यदु ने उनकी पूजा और वन्दना की, दत्तात्रेयजी उनसे अनुमति लेकर बड़ी प्रसन्नता से इच्छानुसार पधार गये । हमारे पूर्वजों के भी पूर्वज राजा यदु अवधूत दत्तात्रेय की यह बात सुनकर समस्त आसक्तियों से छुटकारा पा गये और समदर्शी हो गये। ( इसी प्रकार तुम्हें भी समस्त आसक्तियों का परित्याग करके समदर्शी हो जाना चाहिये) ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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