श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 1-15
तृतीय स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः (4)
उद्धवजी से विदा होकर विदुरजी का मैत्रेय ऋषि के पास जाना
उद्धवजी ने कहा—फिर ब्राम्हणों की आज्ञा पाकर यादवों ने भोजन किया और वारुणी मदिरा पी। उससे उनका ज्ञान नष्ट हो गया और वे दुर्वचनों से एक-दूसरे के ह्रदय को चोट पहुँचाने लगे। मदिरा के नशे से उनकी बुद्धि बिगड़ गयी और जैसे आपस की रगड़ से बाँसों में आग लग जाती है, उसी प्रकार सूर्यास्त होते-होते उनमें मार-काट होने लगी। भगवान् अपनी माया की उस विचित्र गति को देखकर सरस्वती के जल से आचमन करके एक वृक्ष के नीचे बैठ गये। इससे पहले ही शरणागतों का दुःख दूर करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने कुल का संहार करने की इच्छा होने पर मुझसे कह दिया था कि तुम बदरिकाश्रम चले जाओ। विदुरजी! इससे यद्यपि मैं उनका आशय समझ गया था, तो भी स्वामी के चरणों का वियोग न सह सकने के कारण मैं उनके पीछे-पीछे प्रभास क्षेत्र में पहुँच गया। वहाँ मैंने देखा कि जो सबके आश्रय हैं किन्तु जिनका कोई और आश्रय नहीं है, वे प्रियतम प्रभि शोभाधाम श्यामसुन्दर सरस्वती के तट पर अकेले ही बैठे हैं। दिव्य विशुद्ध-सत्वमय अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, शान्ति से भरी रतनारी आँखें हैं। उनकी चार भुजाएँ और रेशमी पीताम्बर देखकर मैंने उनको दूर से ही पहचान लिया। वे एक पीपल के छोटे-से वृक्ष का सहारा लिये बायीं जाँघ पर दायाँ चरणकमल रखे बैठे थे। भोजन-पान का त्याग कर देने पर भी वे आनन्द से प्रफुल्लित हो रहे थे। इसी समय व्यासजी के प्रिय मित्र परम भागवत सिद्ध मैत्रेयजी लोकों में स्वच्छन्द विचरते हुए वहाँ आ पहुँचे। मैत्रेय मुनि भगवान् के अनुरागी भक्त हैं। आनन्द और भक्तिभाव से उनकी गर्दन झुक रही थी। उनके सामने ही श्रीहरि ने प्रेम एवं मुसकान युक्त चितवन से मुझे आनन्दित करते हुए कहा।
श्रीकृष्ण भगवान् कहते हैं—मैं तुम्हारी आन्तरिक अभिलाषा जानता हूँ; इसलिये मैं तुम्हें वह साधन देता हूँ, जो दूसरों के लिये अत्यन्त दुर्लभ है। उद्धव! तुम पूर्वजन्म में वसु थे। विश्व की रचना करने वाले प्रजापतियों और वसुओं के यज्ञ में मुझे पाने की इच्छा सही तुमने मेरी आराधना की थी। साधुस्वभाव उद्धव! संसार में तुम्हारा यह अन्तिम जन्म है; क्योंकि इसमें तुमने मेरा अनुग्रह प्राप्त कर लिया है। अब मैं मर्त्यलोक को छोड़कर अपने धाम में जाना चाहता हूँ। इस समय यहाँ एकान्त में तुमने अपनी अनन्य भक्ति के कारण ही मेरा दर्शन पाया है, यह बड़े सौभाग्य की बात है। पूर्वकाल (पाद्मकल्प)—के आरम्भ में मैंने अपने नाभिकमल पर बैठे हुए ब्रम्हा को अपनी महिमा के प्रकट करने वाले जिस श्रेष्ठ ज्ञान का उपदेश किया था और जिसे विवेकी लोग ‘भागवत’ कहते हैं, वही मैं तुम्हें देता हूँ। विदुरजी! मुझ पर तो प्रतिक्षण उन परम पुरुष की कृपा बरसा करती थी। इस समय उनके इस प्रकार आदर पूर्वक कहने से स्नेहवश मुझे रोमांच हो आया, मेरी वाणी गद्गद हो गयी और नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी। उस समय मैंने हाथ जोड़कर उनसे कहा—। ‘स्वामिन्! आपके चरणकमलों की सेवा करने वाले पुरुषों को इस संसार में अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष—इस चारों में से कोई भी पदार्थ दुर्लभ नहीं है; तथापि मुझे उनमें से किसी की इच्छा नहीं है। मैं तो केवल आपके चरणकमलों की सेवा के लिये ही लालायित रहता हूँ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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