श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 14-24

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तृतीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः (8)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 14-24 का हिन्दी अनुवाद

कर्म शक्ति को जाग्रत् करने वाले काल के द्वारा विष्णु भगवान् की नाभि से प्रकट हुआ वह सूक्ष्म तत्व कमलकोश के रूप में सहसा ऊपर उठा और उसने सूर्य के समान अपने तेज से उस अपार जलराशि को देदीप्यमान कर दिया। सम्पूर्ण गुणों को प्रकाशित करने वाले उस सर्वलोकमय कमल में वे विष्णु भगवान् ही अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट हो गये। तब उसमें से बिना पढ़ाये ही स्वयं सम्पूर्ण वेदों को जानने वाले साक्षात् वेदमूर्ति श्रीब्रम्हाजी प्रकट हुए, जिन्हें लोग स्वयम्भु कहते हैं। उस कमल की कर्णिका (गद्दी)—में बैठे हुए ब्रम्हाजी को जब कोई लोक दिखायी नहीं दिया, तब वे आँखें फाड़कर आकाश में चारों ओर गर्दन घुमाकर देखने लगे, इससे उनके चारों दिशाओं में चार मुख हो गये। उस समय प्रलयकालीन पवन के थपेड़ों से उछलती हुई जल की तरंगमालाओं के कारण उस जलराशि से ऊपर उठे हुए कमल पर विराजमान आदि देव ब्रम्हाजी को अपना तथा उस लोक तत्वरूप कमल का कुछ भी रहस्य न जान पड़ा। वे सोचने लगे, ‘इस कमल की कर्णिका पर बैठा हुआ मैं कौन हूँ ? यह कमल भी बिना किसी अन्य आधार के जल में कहाँ से उत्पन्न हो गया ? इसके नीचे अवश्य कोई ऐसी वस्तु होनी चाहिये, जिसके आधार पर यह स्थित है’। ऐसा सोचकर वे उस कमल की नाल के सूक्ष्म छिद्रों में होकर उस जल में घुसे। किन्तु उस नाल के आधार कोई खोजते-खोजते नाभि-देश के समीप पहुँच जाने पर भी वे उसे पा न सके। विदुरजी! उस अपार अन्धकार में अपने उत्पत्ति-स्थान को खोजते-खोजते ब्रम्हाजी को बहुत काल बीत गया। यह काल ही भगवान् का चक्र है, जो प्राणियों को भयभीत (करता हुआ उनकी आयु को क्षीण) करता रहता है। अन्त में विफल मनोरथ हो वे वहाँ से लौट आये और पुनः अपने आधार भूत कमल पर बैठकर धीरे-धीरे प्राण वायु को जीतकर चित्त को निःसंकल्प किया और समाधि में स्थित हो गये। इस प्रकार पुरुष की पूर्ण आयु के बराबर काल तक (अर्थात् दिव्य सौ वर्ष तक) अच्छी तरह योगाभ्यास करने पर ब्रम्हाजी को ज्ञान प्राप्त हुआ; तब उन्होंने अपने उस अधिष्ठान को, जिसे वे पहले खोजने पर भी नहीं देख पाये थे, अपने ही अन्तःकरण में प्रकाशित होते देखा। उन्होंने देखा कि उस प्रलयकालीन जल में शेषजी के कमलनाल सदृश गौर और विशाल विग्रह की शय्या पर पुरुषोत्तम भगवान् अकेले ही लेते हुए हैं। शेषजी के दस हजार फण छत्र के समान फैले हुए हैं। उनके मस्तकों पर किरीट शोभायमान हैं, उनमें जो मणियाँ जड़ी हुई हैं, उनकी कान्ति से चारों ओर का अन्धकार दूर हो गया है। वे अपने श्याम शरीर की आभा से मरकतमणि के पर्वत की शोभा को लज्जित कर रहे हैं। उनकी कमर का पीटपट पर्वत के प्रान्त देश में छाये हुए सायंकाल के पीले-पीले चमकीले मेघों की आभा को मलिन कर रहा है, सिर पर सुशोभित सुवर्ण मुकुट सुवर्णमय शिखरों का मान मर्दन कर रहा है। उनकी वनमाला पर्वत के रत्न, जलप्रपात, ओषधि और पुष्पों की शोभा को परास्त कर रही है तथा उनके भुजदण्ड वेणुदण्ड का और चरण वृक्षों का तिरस्कार करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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