श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 23-33
दशम स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्यायः(13) (पूर्वार्ध)
परीक्षित्! इसी प्रकार प्रतिदिन संध्यासमय भगवान श्रीकृष्ण उन ग्वालबालों के रूप में वन से लौट आते और अपनी बालसुलभ लीलाओं से माताओं को आनन्दित करते। वे माताएँ उन्हें उबटन लगातीं, नहलातीं, चन्दन का लेप करतीं और अच्छे-अच्छे वस्त्रों तथा गहनों से सजातीं। दोनों भौंहों के बीच डीठ से बचाने के लिए काजल का डिठौना लगा देतीं तथा भोजन करातीं और तरह-तरह से बड़े लाड़-प्यार से उनका लालन-पालन करतीं । ग्वालिनों के समान गौएँ भी जब जगलों में से चरकर जल्दी-जल्दी लौटतीं और उनकी हुंकार सुनकर उनके प्यारे बछड़े दौकर उसके पास आ जाते, अब वे बार-बार उन्हें अपनी जीभ से चाटतीं और अपना दूध पिलातीं। उस समय स्नेह की अधिकता के कारण उनके थनों से स्वयं ही दूध की धारा बहने लगती । इन गायों और ग्वालिनों का मातृभाव पहले-जैसा ही ऐश्वर्यज्ञानरहित और विशुद्ध था। हाँ, अपने असली पुत्रों की अपेक्षा इस समय उनका स्नेह अवश्य अधिक था। इसी प्रकार भगवान भी उनके पहले पुत्रों के समान ही पुत्रभाव दिखला रहे थे, परन्तु भगवान में उन बालकों के जैसा मोह का भाव नहीं था कि मैं इनका पुत्र हूँ । अपने-अपने बालकों के प्रति व्रज-वासियों की स्नेह लता दिन-प्रतिदिन एक वर्ष तक धीरे-धीरे बढ़ती ही गयी। यहाँ तक कि पहले श्रीकृष्ण एन उनका जैसा असीम और अपूर्व प्रेम था, वैसा ही अपने इन बालकों के प्रति भी हो गया । इस प्रकार सर्वात्मा श्रीकृष्ण बछड़े ग्वालबालों के बहाने गोपाल बनकर अपने बालकरूप से वत्सरुप का पालन करते हुए एक वर्ष तक वन और गोष्ठ में क्रीडा करते रहे ।
जब एक वर्ष पूरा होने में पाँच-छः रातें शेष थीं, तब एक दिन भगवान श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ बछड़ों को चराते हुए वन में गये । उस समय गौएँ गोवर्धन की चोटी पर घास चर रहीं थीं। वहाँ उन्होंने व्रज के पास ही चरते हुए बहुत दूर अपने बछड़ों को देखा । बछड़ों को देखते ही गौओं का वात्सल्य-स्नेह उमड़ आया। वे अपने-आप की सुध-बुध खो बैठीं और ग्वालों के रोकने की कुछ भी परवा न कर जिस मार्ग से वे न जा सकते थे, उस मार्ग से हुंकार करती हुई बड़े वेग से दौड़ पड़ीं। उस समय उनके थनों से दूध बहता जाता था और उनकी गरदने सिकुड़कर डील से मिल गयी थीं। वे पूँछ तथा सिर उठाकर इतने वेग से दौड़ रहीं थीं कि मालूम होता था मानो उनके दो ही पैर हैं । जिन गौओं के और भी बछड़े हो चुके थे, वे भी गोवर्धन के नीचे अपने पहले बछड़ों के पास दौड़ आयीं और उन्हें स्नेहवश अपने-आप बहता हुआ दूध पिलाने लगीं। उस समय वे अपने बच्चों का एक-एक अंग ऐसे चाव से चाट रहीं थीं, मानों उन्हें अपने पेट में रख लेंगी । गोपों ने उन्हें रोकने का बहुत कुछ प्रयत्न किया, परन्तु उनका सारा प्रयत्न व्यर्थ रहा। उन्हें अपनी विफलता पर कुछ लज्जा और गायों पर बड़ा क्रोध आया। जब वे बहुत कष्ट उठाकर उस कठिन मार्ग से उस स्थान पर पहुँचे, तब उन्होंने बछड़ों के स्थ अपने बालकों को भी देखा । अपने बच्चों को देखते ही उनका ह्रदय प्रेमरस से सराबोर हो गया। बालकों के प्रति अनुराग की बाढ़ आ गयी, उनका क्रोध न जाने कहाँ हवा हो गया। उन्होंने अपने-अपने बालकों को गोद में उठाकर ह्रदय से लगा लिया और उनका मस्तक सूँघकर अत्यन्त आनन्दित हुए ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-