श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 14-22
दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः(14) (पूर्वार्ध)
प्रभो! आप समस्त जीवों के आत्मा हैं। इसलिये आप नारायण (नार—जीव और अयन—आश्रय) हैं। आप समस्त जगत् के और जीवों के अधीश्वर हैं, इसलिए भी नारायण (नार—जीव और अयन—प्रवर्तक) हैं। आप समस्त लोकों के साक्षी हैं, इसलिए भी नारायण (नार—जीव और अयन—जानने वाले) हैं। नर से उत्पन्न होने वाले जल में निवास करने के कारण जिन्हें नारायण (नार—जल और अयन—निवासस्थान) कहा जाता है, वे भी आपके एक अंश ही हैं। वह अंशरूप से दीखना भी सत्य नहीं हैं, आपकी माया ही है । भगवन्! यदि आपका विराट् स्वरुप सचमुच उस समय जल में ही था तो मैंने उसी समय क्यों नहीं देखा, जब कि मैं कमलनाल के मार्ग से उसे सौ वर्ष तक जल में ढूंढ़ता रहा ? फिर मैंने जब तपस्या की, तब उसी समय मेरे ह्रदय में उसका दर्शन कैसे हो गया ? और फिर कुछ ही क्षणों में वह पुनः क्यों नहीं दीखा, अंतर्धयान क्यों गया ? माया का नाश करने वाले प्रभो! दूर की बात कौन करे—अभी इसी अवतार में आपने इस बाहर दीखने वाले जगत् को अपने पेट में ही दिखला दिया, जिसे देखकर माता यशोदा चकित हो गयी थीं। इससे यही सिद्ध होता है कि यह सम्पूर्ण विश्व केवल आपकी माया-ही-माया है । जब आपके सहित यह सम्पूर्ण विश्व जैसा बाहर दीखता है वैसा ही आपके उदार में भी दीखा, तब क्या यह सब आपकी माया के बिना ही आप में प्रतीत हुआ ? अवश्य ही आपकी लीला है । उस दिन की बात जाने दीजिये, आज की ही लीजिये। क्या आज आपने मेरे सामने अपने अतिरिक्त सम्पूर्ण विश्व को अपनी माया का खेल नहीं दिखलाया है ? पहले आप अकेले थे। फिर सम्पूर्ण ग्वालबाल, बछड़े और छड़ी-छीके भी आप ही हो गये। उसके बाद मैंने देखा कि आपके वे सब रूप चतुर्भुज हैं और मेरे सहित सब-के-सब तत्व उनकी सेवा कर रहे हैं। आपने अलग-अलग उतने ही ब्रम्हाण्ड़ो का रूप भी धारण कर लिया था, परन्तु अब आप केवल अपरिमित अद्वितीय ब्रम्हरूप से ही शेष रह गये हैं । जो लोग अज्ञानवश आपके स्वरुप को नहीं जानते, उन्हीं को आप प्रकृति में स्थित जीव के रूप से प्रतीत होते हैं और उनपर अपनी माया का परदा डालकर सृष्टि के समय मेरे (ब्रम्हा) रूप से, पालन के समय अपने (विष्णु) रूप से और संहार के समय रूद्र के रूप में प्रतीत होते हैं । प्रभो! आप सारे जगत् के स्वामी और विधाता हैं। अजन्मा होने पर भी आप देवता, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और जलचर आदि योनियों में अवतार ग्रहण करते हैं—इसलिए कि इन रूपों के द्वारा दुष्ट पुरुषों का घमण्ड तोड़ दें और सत्पुरुषों पर अनुग्रह करें । भगवन् आप अनन्त परमात्मा और योगेश्वर हैं। जिस समय आप अपनी योगमाया का विस्तार करके लीला करने लगते हैं, उस समय त्रिलोकी में ऐसा कौन है, जो यह जान सके कि आपकी लीला कहाँ, किसलिये, कब और कितनी होती है । इसलिए यह सम्पूर्ण जगत् स्वप्न के समान असत्य, अज्ञानरूप और दुःख-पर-दुःख देने वाला है। आप परमानन्द, परम ज्ञानस्वरूप एवं अनन्त हैं। यह माया से उत्पन्न एवं विलीन होने पर भी आपमें आपकी सत्ता से सत्य के समान प्रतीत होता है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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