श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 20 श्लोक 26-38
दशम स्कन्ध: विंशोऽध्यायः (20) (पूर्वार्ध)
गौएँ अपने थनों के भारी भार के कारण बहुत ही धीरे-धीरे चल रही थीं। जब भगवान श्रीकृष्ण उनका नाम लेकर पुकारते, तब वे प्रेमपरवश होकर जल्दी-जल्दी दौड़ने लगतीं। उस समय उनके थनों से दूध की धारा गिरती जाती थी । भगवान ने देखा कि वनवासी भील और भीलनियाँ आनन्दमग्न हैं। वृक्षों की पंक्तियाँ मधुधारा उंडेल रही हैं। पर्वतों से झर-झर करते हुए झरने झर रहे हैं। उनकी आवाज बड़ी सुरीली जान पड़ती है और साथ ही वर्षा होने पर छिपने के लिये बहुत-सी गुफाएँ भी हैं । जब वर्षा होने लगती तब श्रीकृष्ण कभी किसी वृक्ष की गोद में या खोड़र में जा छिपते। कभी-कभी किसी गुफ़ा में ही जा बैठते और कभी कन्द-मूल-फल खाकर ग्वालालों के साथ खेलते रहते । कभी जल के पास ही किसी चट्टान पर बैठ जाते और बलरामजी तथा ग्वालबालों के साथ मिलकर घर से लाया हुआ दही-भात, दाल-शाक आदि के साथ खाते । वर्षा ऋतु में बैल, बछड़े और थनों के भारी भार से थकी हुई गौएँ थोड़ी ही देर में भरपेट घास चर लेंतीं और हरी-भरी घास पर बैठकर ही आँख मूँदकर जुगाली करती रहतीं। वर्षा ऋतु की सुन्दरता अपार थी। वह सभी प्राणियों को सुख पहुँचा रही थी। इसमें संदेह नहीं कि वह ऋतु, गाय, बैल, बछड़े—सब-के-सब भगवान की लीला के ही विलास थे। फिर भी उन्हें देखकर भगवान बहुत प्रसन्न होते और बार-बार प्रशंसा करते ।
इस प्रकार श्याम और बलराम बड़े आनन्द से व्रज में निवास कर रहे थे। इसी समय वर्षा बीतने पर शरद् ऋतु आ गयी। अब आकाश में बादल नहीं रहे, जल निर्मल हो गया, वायु बड़ी धीमी गति से चलने गयी । शरद् ऋतु में कमलों की उत्पत्ति से जलाशयों के जलने अपनी सहज स्वच्छता प्राप्त पर ली—ठीक वैसे ही, जैसे योगभ्रष्ट पुरुषों का चित्त फिर से योग का सेवन करने से निर्मल हो जाता है । शरद् ऋतु ने आकाश के बादल, वर्षा-काल के बढ़े हुए जीव, पृथ्वी की कीचड़ और जल के मटमैलेपन को नष्ट कर दिया—जैसे भगवान की भक्ति ब्रम्हचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यासियों सब प्रकार के कष्टों और अशुभों का झटपट नाश कर देती है । बादल अपने सर्वस्व जल का दान करके उज्जवल कान्ति से सुशोभित होने लगे—ठीक वैसे ही, जैसे लोक-परलोक, स्त्री-पुत्र और धन-सम्पत्ति सम्बन्धी चिन्ता और कामनाओं का परित्याग कर देने पर संसार के बन्धन से छूटे हुए परम शान्त सन्यासी शोभायमान होते हैं । अब पर्वतों से कहीं-कहीं झरने-झरते थे और कहीं-कहीं वे अपने कल्याणकारी जल को नहीं भी बहाते थे—जैसे ज्ञानी पुरुष समय पर अपने अमृतमय ज्ञान का दान किसी अधिकारी को कर देते हैं और किसी-किसी को नहीं भी करते । छोटे-छोटे गड्ढ़ों में भरे हुए जल के जलचर यह नहीं जानते कि इस गड्ढ़े का जल दिन-पर-दिन सूखता जा रहा है—जैसे कुटुम्ब के भरण-पोषण में भूले हुए मूढ़ यह नहीं जानते कि हमारी आयु क्षण-क्षण क्षीण हो रही है । थोड़े जल में रहने वाले प्राणियों को शरत्कालीन सूर्य की प्रखर किरणों से बड़ी पीड़ा होने लगी—जैसे अपनी इन्द्रियों के वश में रहने वाले कृपण एवं दरिद्र कुटुम्बी को तरह-तरह के ताप सताते ही रहते हैं ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-