श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 33 श्लोक 38-40

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दशम स्कन्ध: त्रास्त्रिंशोऽध्यायः (33) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रास्त्रिंशोऽध्यायः श्लोक 38-40 का हिन्दी अनुवाद

व्रजवासी गोपों ने भगवान श्रीकृष्ण में तनिक भी दोषबुद्धि नहीं की। वे उनकी योगमाया से मोहित होकर ऐसा समझ रहे थे कि हमारी पत्नियाँ हमारे पास ही हैं । ब्रम्हा की रात्रि के बराबर वह रात्रि बीत गयी। ब्राम्हमुहूर्त आया। यद्यपि गोपियों की इच्छा अपने घर लौटने की नहीं थी, फिर भी भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से वे अपने-अपने घर चली गयीं। क्योंकि वे अपनी प्रत्येक चेष्टा से, प्रत्येक संकल्प से केवल भगवान को ही प्रसन्न करना चाहती थीं ।

परीक्षित्! जो धीर पुरुष व्रजयुवतियों के साथ भगवान श्रीकृष्ण के इस चिन्मय रास-विलास का श्रद्धा के साथ बार-बार श्रवण और वर्णन करता है, उसे भगवान के चरणों में परा भक्ति की प्राप्ति होती है और वह बहुत ही शीघ्र अपने ह्रदय के रोग—कामविकार से छुटकारा पा जाता है। उसका कामभाव सर्वदा के लिये नष्ट हो जाता है[१]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भागवत में ये रासलीला के पाँच अध्याय उसके पाँच प्राण माने जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की परम अन्तरंग लीला, निजस्वरुपभूता गोपिओं और ह्रादिनी शक्ति श्रीराधाजी के साथ होने वाली भगवान की दिव्यातिदिव्य क्रीडा, इन अध्यायों में कही गयी है। ‘रास’ शब्द का मूल रस स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही हैं—‘रसो वै सः’। जिस दिव्य क्रीड़ा में एक ही रस अनेक रसों के रूप में होकर अनन्त-अनन्त रस का समास्वादनकरे; एक रस ही रस-समूह के रूप में प्रकट होकर स्वयं ही आस्वाद्द-आस्वादक, लीला, धाम और विभिन्न आलम्बन एवं उद्दीपन के रूप में क्रीडा करे—उसका नाम रास है। भगवान की यह दिव्य लीला भगवान के दिव्य धाम में दिव्य रूप से निरन्तर हुआ करती है। यह भगवान की विशेष कृपा से प्रेमी साधकों के हितार्थ कभी-कभी अपने दिव्य धाम के साथ ही भूमण्डल भी अवतीर्ण हुआ करती है, जिसको देख-सुन एवं गाकर तथा स्मरण-चिन्तन करके अधिकारी पुरुष रसस्वरुप भगवान की इस परम रसमयी लीला का आनन्द ले सकें और स्वयं भी भगवान की लीला में सम्मिलित होकर अपने को कृतकृत्य कर सकें। इस पंचाध्यायी में वंशी ध्वनि, गोपियों के अभिसार, श्रीकृष्ण के साथ उनकी बातचीत, रमण, श्रीराधाजी के साथ अन्तर्धान, पुनः प्राकट्य, गोपियों के द्वारा दिये हुए वसनासन पर विराजना, गोपियों के कूट प्रश्न का उत्तर, रास नृत्य, क्रीडा, जलकेलि और वन विहार का वर्णन है—जो मानवी भाषा में होने पर भी वस्तुतः परम दिव्य है।
    समय के साथ मानव-मष्तिष्क भी पलटता रहता है। कभी अन्तर्दृष्टि की प्रधानता हो जाती है और कभी बहिर्दृष्टि की। आज का युग ही ऐसा है, जिसमें भगवान की दिव्य-लीलाओं की तो बात ही क्या, स्वयं भगवान के अस्तित्व पर ही अविश्वास प्रकट किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में इस दिव्य लीला का रहस्य न समझकर लोग तरह-तरह की आशंका प्रकट करें, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। यह लीला अन्तर्दृष्टि से और मुख्यतः भगवत्कृपा से ही समझ में आती है। जिन भाग्यवान् और भगवत्कृपा प्राप्त महात्माओं ने इसका अनुभव किया है, वे धन्य हैं और उनकी चरण-धूलि के प्रताप से ही त्रिलोकी धन्य है। उन्हीं की उक्तियों का आश्रय लेकर यहाँ रासलीला के सम्बन्ध में यत्किंचित् लिखने की धृष्टता की जाती है।
    यह बात पहले ही समझ लेनी चाहिये कि भगवान का शरीर जीव-शरीर की भाँति जड़ नहीं होता। जड़ की सत्ता केवल जीव की दृष्टि में होती है, भगवान की दृष्टि में नहीं। यह देह है और यह देही है, इस प्रकार का भेदभाव केवल प्रकृति के राज्य में होता है। अप्राकृत लोक में—जहाँ की प्रकृति भी चिन्मय है—सब कुछ चिन्मय ही होता है; वहाँ अचित् की प्रतीति तो केवल चिद्विलास अथवा भगवान की लीला की सिद्धि के लिये होती है। इसलिये स्थूलता में—या यों कहिये कि जड़ राज्य में रहने वाला मस्तिष्क जब भगवान की अप्राकृत लीलाओं के सम्बन्ध में विचार करने लगता है, तब वह अपनी पूर्व वासनाओं के अनुसार जड़ राज्य की धारणाओं, कल्पनाओं और क्रियाओं का ही आरोप उस दिव्य राज्य के विषय में भी करता है, इसलिये दिव्य-लीला के रहस्य को समझने में असमर्थ हो जाता है। यह रास वस्तुतः परम उज्ज्वल रस का एक दिव्य प्रकाश है। जड़ जगत् की बात तो दूर रही, ज्ञान रूप या विज्ञान रूप जगत् में भी यह प्रकट नहीं होता। अधिक क्या, साक्षात् चिन्मय तत्व में भी इस परम दिव्य उज्ज्वल रस का लेशाभास नहीं देखा जाता। इस परम रस की स्फूर्ति तो परम भावमयी श्रीकृष्ण प्रेम स्वरूपा गोपीजनों के मधुर ह्रदय में ही होती है। इस रासलीला के यथार्थ स्वरुप और परम माधुर्य का आस्वाद उन्हीं को मिलता है, दूसरे लोग तो इस की कल्पना भी नहीं कर सकते।
    भगवान के समान ही गोपियाँ भी परम रसमयी और सच्चिदानन्दमयी ही हैं। साधना की दृष्टि से भी उन्होंने न केवल जड़ शरीर का ही त्याग कर दिया है, बल्कि सूक्ष्म शरीर से प्राप्त होने वाले स्वर्ग, कैवल्य से अनुभव होने वाले मोक्ष—और तो क्या, जड़ता की दृष्टि का ही त्याग कर दिया है। उनकी दृष्टि में केवल चिदानन्दस्वरुप श्रीकृष्ण हैं, उनके ह्रदय में श्रीकृष्ण को तृप्त करने वाला प्रेमामृत है। उनकी इस अलौकिक स्थिति में स्थूल शरीर, उसकी स्मृति और उसके सम्बन्ध से होने वाले अंग-संग की कल्पना किसी भी प्रकार नहीं की जा सकती। ऐसी कल्पना तो केवल देहात्मबुद्धि से जकड़े हुए जीवों की ही होती है। जिन्होंने गोपियों को पहचाना है, उन्होंने गोपियों की चरणधूलि का स्पर्श प्राप्त करके अपनी कृतकृत्यता चाही है। ब्रम्हा, शंकर, उद्धव और अर्जुन ने गोपियों की उपासना करके भगवान के चरणों में वैसे प्रेम का वरदान प्राप्त किया है या प्राप्त करने की अभिलाषा की है। उन गोपियों के दिव्य भाव को साधारण स्त्री-पुरुष के भाव-जैसा मानना गोपियों के प्रति, भगवान के प्रति और वास्तव में सत्य के प्रति महान् अन्याय एवं अपराध है। इस अपराध से बचने के लिये भगवान की दिव्य लीलाओं पर विचार करते समय उनकी अप्राकृत दिव्यता का स्मरण रखना परमावश्यक है।
    भगवान का चिदानन्दघन शरीर दिव्य है। वह अजन्मा और अविनाशी है, हानोपादानरहित है। वह नित्य सनातन शुद्ध भगवत्स्वरुप ही है। इसी प्रकार गोपियाँ दिव्य जगत् की भगवान की स्वरुपभूता अन्तरंग शक्तियाँ हैं। इन दोनों का सम्बन्ध भी दिव्य ही है। यह उच्चतम भाव राज्य की लीला स्थूल शरीर और स्थूल मन से परे है। आवरण-भंग के अनन्तर अर्थात् चीरहरण करके जब भगवान स्वीकृति देते हैं, तब इसमें प्रवेश होता है।
    प्राकृत देह का निर्माण होता है स्थूल, सूक्ष्म और कारण—इन तीन देहों के संयोग से। जब तक ‘कारण शरीर’ रहता है, तब तक इस प्राकृत देह से जीव को छुटकारा नहीं मिलता। ‘कारण शरीर’ कहते हैं पूर्वकृत कर्मों के उन संस्कारों को, जो देह-निर्माण में कारण होते हैं। इस ‘कारण शरीर’ के आधार पर जीव को बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ना होता है और यह चक्र जीव की मुक्ति न होने तक अथवा ‘कारण’ का सर्वथा अभाव न होने तक चलता ही रहता है। इसी कर्म बन्धन के कारण पांचभौतिक स्थूल शरीर मिलता है—जो रक्त, मांस, अस्थि आदि से भरा और चमड़े से ढका होता है। प्रकृति के राज्य में जितने शरीर होते हैं, सभी वस्तुतः योनि और बिन्दु के संयोग से ही बनते हैं; फिर चाहे कोई कामजनित निकृष्ट मैथुन से उत्पन्न हो या ऊर्ध्वरेता महापुरुष के संकल्प से, बिन्दु के अधोगामी होने पर कर्तव्य रूप श्रेष्ठ मैथुन से हो, अथवा बिना ही मैथुन के नाभि, ह्रदय, कण्ठ, कर्ण, नेत्र, सिर, मस्तक आदि के स्पर्श से, बिना ही स्पर्श के केवल दृष्टिमात्र से अथवा बिना देखे केवल संकल्प से ही उत्पन्न हो। ये मैथुनी-अमैथुनी (अथवा कभी-कभी स्त्री या पुरुष-शरीर के बिना भी उत्पन्न होने वाले) सभी शरीर है योनि और बिन्दु के संयोगजनित ही। ये सभी प्राकृत शरीर हैं। इसी प्रकार योगियों के द्वारा निर्मित ‘निर्माणकाय’ यद्यपि अपेक्षाकृत शुद्ध हैं, परन्तु वे भी हैं प्राकृत ही। पितर या देवों के दिव्य कहलाने वाले शरीर भी प्राकृत ही हैं। अप्राकृत शरीर इन सबसे विलक्षण हैं, जो महाप्रलय में भी नष्ट नहीं होते। और भगवद्देह तो साक्षात् भगवत्स्वरूप ही है। देव-शरीर प्रायः रक्त-मांस-मेद-अस्थि वाले नहीं होते। अप्राकृत शरीर भी नहीं होते। फिर भगवान श्रीकृष्ण का भगवत्स्वरूप शरीर तो रक्त-मांस-अस्थिमय होता ही कैसे। वह तो सर्वथा चिदानन्दनमय है। उसमें देह-देही, गुण-गुणी, रूप-रूपी, नाम-नामी और लीला तथा लीला पुरुषोत्तम का भेद नहीं है। श्रीकृष्ण का एक-एक अंग पूर्ण श्रीकृष्ण है। श्रीकृष्ण का मुखमण्डल जैसे पूर्ण श्रीकृष्ण है, वैसे ही श्रीकृष्ण का पदनख भी पूर्ण श्रीकृष्ण है। श्रीकृष्ण की सभी इन्द्रियों से सभी काम हो सकते हैं। उनके कान देख सकते हैं, उनकी आँखें सुन सकती हैं, उनकी नाक स्पर्श कर सकती है, उनकी रसना सूँघ सकती है, उनकी त्वचा स्वाद ले सकती है। वे हाथों से देख सकते हैं, आँखों से चल सकते हैं। श्रीकृष्ण का सब कुछ श्रीकृष्ण होने कारण वह सर्वथा पूर्णतम है। इसी से उनका रूप माधुरी नित्य वर्द्धनशील, नित्य नवीन सौन्दर्यमयी है। उसमें ऐसा चमत्कार है कि वह स्वयं अपने को ही आकर्षित कर लेती है। फिर उनके सौन्दर्य-माधुर्य से गौ-हरिन और वृक्ष-बेल पुलकित हो जायँ, इसमें तो कहना ही क्या है। भगवान के ऐसे स्वरुपभूत शरीर से गंदा मैथुनकर्म सम्भव नहीं। मनुष्य जो कुछ खाता है, उससे क्रमशः रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा और अस्थि बनकर अन्त में शुक्र बनता है; इसी शुक्र के आधार पर शरीर रहता है और मैथुनक्रिया में इसी शुक्र का क्षरण हुआ करता है। भगवान का शरीर न तो कर्मजन्य है, न मैथुनी सृष्टि का है और न दैवी ही है। वह तो इन सबसे परे सर्वथा विशुद्ध भगवत्स्वरूप है। उसमें रक्त, मांस, अस्थि आदि नहीं हैं; अतएव उसमें शुक्र भी नहीं है। इसलिये उसमें प्राकृत पांचभौतिक शरीरों वाले स्त्री-पुरुषों के रमण या मैथुन की कल्पना भी नहीं हो सकती। इसीलिये भगवान को उपनिषद् में ‘अखण्ड ब्रम्हचारी’ बतलाया गया है और इसी से भागवत में उनके लिये ‘अवरुद्ध सौरत’ आदि शब्द आये हैं। फिर कोई शंका करे कि उनके सोलह हजार एक सौ आठ रानियों के इतने पुत्र कैसे हुए तो इसका सीधा उत्तर यही है कि यह सारी भागवती सृष्टि थी, भगवान के संकल्प से हुई थी। भगवान के शरीर में जो रक्त-मांस आदि दिखलायी पड़ते हैं, वह तो भगवान की योगमाया का चमत्कार है। इस विवेचन से भी यही सिद्ध होता है कि गोपियों के साथ भगवान श्रीकृष्ण का जो रमण हुआ वह सर्वथा दिव्य भगवत्-राज्य की लीला है, लौकिक काम-क्रीड़ा नहीं।
    X X X X X
    इन गोपियों की साधना पूर्ण हो चुकी है। भगवान ने अगली रार्त्रियों में उनके साथ विहार करने का प्रेम-संकल्प कर लिया है। इसी के साथ उन गोपियों को भी जो नित्य सिद्धा हैं, जो लोक दृष्टि से विवाहिता भी हैं, इन्हीं रात्रियों में दिव्य-लीला में सम्मिलित करना है। वे अगली रात्रियाँ कौन-सी हैं, यह बात भगवान की दृष्टि के सामने है। उन्होंने शारदीय रात्रियों को देखा। ‘भगवान ने देखा’—इसका अर्थ सामान्य नहीं, विशेष है। जैसे सृष्टि के प्रारम्भ में ‘स ऐक्षत एकोऽहं बहु स्याम्।’—भगवान के इस ईक्षण से जगत् की उत्पत्ति होती हैं, वैसे ही रास के प्रारम्भ में भगवान के प्रेमवीक्षण से शरत्काल की दिव्य रात्रियों की सृष्टि होती है। मल्लिका-पुष्प, चन्द्रिका आदि समस्त उद्दीपन सामग्री भगवान के द्वारा वीक्षित है अर्थात् लौकिक नहीं, अलौकिक—अप्राकृत है। गोपियों ने अपना मन श्रीकृष्ण के मन में मिला दिया था। उनके पास स्वयं मन न था। अब प्रेम दान करने वाले श्रीकृष्ण ने विहार के के लिये नवीन मन की, दिव्य मन की सृष्टि की। योगेश्वरेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की यही योगमाया है, जो रासलीला के लिये दिव्य स्थल, दिव्य सामग्री एवं दिव्य मन का निर्माण किया करती है। इतना होने पर भगवान की बाँसुरी बजती है।
    भगवान की बाँसुरी जड़ को चेतन, चेतन को जड़, चल को अचल और अचल को चल, विक्षिप्त को समाधिस्थ और समाधिस्थ को विक्षिप्त बनाती रहती है। भगवान का प्रेम दान प्राप्त करके गोपियाँ निस्संकल्प, निश्चिन्त होकर घर के काम में लगी हुई थीं। कोई गुरुजनों की सेवा-शुश्रुवा—धर्म के काम में लगी हुई थी, कोई गो-दोहन आदि अर्थ के काम में लगी हुई थी, कोई साज-श्रृंगार आदि काम के साधन में व्यक्त थी, कोई पूजा-पाठ आदि मोक्ष साधन में लगी हुई थी। सब लगी हुई थीं अपने-अपने काम में, परन्तु वास्तव में वे उनमें से एक भी पदार्थ चाहती न थीं। यही उनकी विशेषता थी और इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि वंशी ध्वनि सुनते ही कर्म की पूर्णता पर उनका ध्यान नहीं गया; काम पूरा करके चलें, ऐसा उन्होंने नहीं सोचा। वे चल पड़ी उस साधक संन्यासी के समान, जिसका ह्रदय वैराग्य की प्रदीप्त ज्वाला से परिपूर्ण है। किसी ने किसी से पूछा नहीं, सलाह नहीं की; अस्त-व्यस्त गति से जो जैसे थी, वैसे ही श्रीकृष्ण के पास पहुँच गयी। वैराग्य की पूर्णता और प्रेम की पूर्णता एक ही बात है, दो नहीं। गोपियाँ व्रज और श्रीकृष्ण के बीच में मुर्तिमान् वैराग्य हैं या मुर्तिमान् प्रेम, क्या इसका निर्णय कोई कर सकता है ?
    साधना के दो भेद हैं—१—मर्यादा पूर्ण वैध साधना और २—मर्यादा रहित अवैध प्रेम साधना। दोनों के ही अपने-अपने स्वतन्त्र नियम हैं। वैध साधना में जैसे नियमों के बन्धन का, सनातन पद्धति का, कर्तव्यों का और विविध पालनीय कर्मों का त्याग साधना से भ्रष्ट करने वाला और महान् हानिकर है, वैसे ही अवैध प्रेम साधना में इनका पालन-कलंक रूप होता है। यह बात नहीं कि इन सब आत्मोन्नति के साधनों को वह अवैध प्रेम साधना का साधक जान-बूझकर छोड़ देता है। बात यह है कि वह स्तर ही ऐसा है, जहाँ इनकी आवश्यकता नहीं है। ये वहाँ अपने-आप वैसे ही छूट जाते हैं, जैसे नदी के पार पहुँच जाने पर स्वाभाविक ही नौका की सवारी छूट जाती है। जमीन पर न तो नौका पर बैठकर चलने का प्रश्न उठता है और न ऐसा चाहने या करने वाला बुद्धिमान ही माना जाता है। ये सब साधन वहीं तक रहते हैं, जहाँ तक सारी वृत्तियाँ सहज स्वेच्छा से सदा-सर्वदा एकमात्र भगवान की ओर दौड़ने नहीं लग जातीं। इसीलिये भगवान ने गीता में के जगह तो अर्जुन से कहा है—
    ‘अर्जुन! यद्यपि तीनों लोकों में मुझे कुछ भी करना नहीं है और न मुझे किसी वस्तु को प्राप्त ही करना है, जो मुझे न प्राप्त हो; तो भी मैं कर्म करता ही हूँ। यदि मैं सावधान होकर कर्म न करूँ तो अर्जुन! मेरी देखा-देखी लोग कर्मों को छोड़ बैठें और यों मेरे कर्म न करने से ये सारे लोक भ्रष्ट हो जायँ तथा मैं इन्हें वर्ण संकर बनाने वाला और सारी प्रजा का नाश करने वाला बनूँ। इसलिये मेरे इस आदर्श के अनुसार अनासक्त ज्ञानी पुरुष को भी लोक संग्रह के लिये वैसे ही कर्म करना चाहिये, जैसे कर्म में आसक्त अज्ञानी लोग करते हैं।’
    यहाँ भगवान आदर्श लोकसंग्रही महापुरुष के रूप में बोलते हैं, लोक नायक बनकर सर्वसाधारण को शिक्षा देते हैं। इसलिये स्वयं अपना उदाहरण देकर लोगों को कर्म में प्रवृत्त करना चाहते हैं। ये ही भगवान उसी गीता में जहाँ अन्तरंगता की बात कहते हैं, वहाँ स्पष्ट कहते हैं—
    ‘सारे धर्मों का त्याग करके तू केवल एक मेरी शरण में आ जा।’
    यह बात सबके लिये नहीं है। इसी से भगवान १८|६४ में इसे सबसे बढ़कर छिपी हुई गुप्त बात (सर्वगुह्यतम) कहकर इसके बाद के ही श्लोक में कहते हैं—
    ‘भैया अर्जुन! इन सर्वगुह्यतम बात को जो इन्द्रिय-विजयी तपस्वी न हो, मेरा भक्त न हो, सुनना न चाहता हो और मुझमें दोष लगाता हो, उसे न कहना।’
    श्रीगोपीजन साधना के इसी उच्च उतर में परम आदर्श थीं। इसी से उन्होंने देह-गेह, पति-पुत्र, लोक-परलोक, कर्तव्य-धर्म—सबको छोड़कर, सबका उल्लंघन कर, एकमात्र परमधर्मस्वरुप भगवान श्रीकृष्ण को ही पाने के लिये अभिसार किया था। उनका यह पति-पुत्रों का त्याग, यह सर्वधर्म का त्याग ही उनके स्तर के अनुरूप स्वधर्म है।
    इस ‘सर्वधर्मत्याग’ रूप स्वधर्म का आचरण गोपियों-जैसे उच्च स्तर के साधकों में ही सम्भव है। क्योंकि सब धर्मों का यह त्याग वही कर सकते हैं, जो इसका यथाविधि पूरा पालन कर चुकने के बाद इसके परमफल अनन्य और अचिन्त्य देव दुर्लभ भगवत्प्रेम को प्राप्त कर चुकते हैं, वे भी जान-बूझकर त्याग नहीं करते। सूर्य का प्रखर प्रकाश हो जाने पर तैल दीपक की भाँति स्वतः ही ये धर्म उसे त्याग देते हैं। यह त्याग तिरस्कार मूलक नहीं, वरं तृप्ति मूलक है। भगवत्प्रेम की ऊँची स्थिति का यही स्वरुप है। देवर्षि नारदजी का एक सूत्र है—
    ‘जो वेदों का (वेद मूलक समस्त धर्ममर्यादाओं का) भी भलीभाँति त्याग कर देता है, वह अखण्ड, असीम भगवत्प्रेम को प्राप्त करता है।’
    जिसको भगवान अपनी वंशी ध्वनि सुनाकर—नाम ले-लेकर बुलायें, वह भला, किसी दूसरे धर्म की ओर ताककर कब और कैसे रुक सकता है।
    रोकने वालों ने रोका भी, परन्तु हिमालय से निकलकर समुद्र में गिरने वाली ब्रम्हपुत्र नदी की प्रखर धारा को क्या कोई रोक सकता है ? वे न रुकीं, नहीं रोकी जा सकीं। जिनके चित्त में कुछ प्राक्तन संस्कार अविशिष्ट थे, वे अपने अनाधिकार के कारण सशरीर जाने में समर्थ न हुईं। उनका शरीर घर में पड़ा रह गया, भगवान के वियोग-दुःख से उनके सारे कलुष धुल गये, ध्यान में प्राप्त भगवान के प्रेमालिंगन से उनके समस्त सौभाग्य का परमफल प्राप्त हो गया और वे भगवान के पास सशरीर जाने वाली गोपियों के पहुँचने से पहले ही भगवान के पास पहुँच गयीं। भगवान में मिल गयीं। यह शास्त्र का प्रसिद्ध सिद्धान्त है कि पाप-पुण्य के कारण ही बन्धन होता है और शुभाशुभ का भोग होता है। शुभाशुभ कर्मों के भोग से जब पाप-पुण्य दोनों नष्ट हो जाते हैं, तब जीव की मुक्ति हो जाती है। यद्यपि गोपियाँ पाप-पुण्य से रहित श्रीभगवान की प्रेम-प्रतिमास्वरूपा थीं, तथापि लीला के लिये यह दिखाया गया है कि अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के पास न जा सकने से, उनके विरहानल से उनको इतना महान् सन्ताप हुआ कि उससे उनके सम्पूर्ण अशुभ का भोग हो गया, उनके समस्त पाप नष्ट हो गये। और प्रियतम भगवान के ध्यान से उन्हें इतना आनन्द हुआ कि उससे उनके सारे पुण्यों का फल मिल गया। इस प्रकार पाप-पुण्यों का पूर्ण रूप से अभाव होने से उनकी मुक्ति हो गयी। चाहे किसी भी भाव से हो—काम से, क्रोध से, लोभ से,—जो भगवान के मंगलमय श्रीविग्रह का चिन्तन करता है, उसके भाव की अपेक्षा न करके वस्तु शक्ति से ही उसका कल्याण हो जाता है। यह भगवान के श्रीविग्रह की विशेषता है। भाव के द्वारा तो एक प्रस्तर मूर्ति भी परम कल्याण का दान कर सकती है, बिना भाव के ही कल्याण दान भगवद्विजग्रह का सहज दान है।
    भगवान हैं बड़े लीलामय। जहाँ वे अखिल विश्व के विधाता ब्रम्हा-शिव आदि के भी वन्दनीय, निखिल जीवों के प्रत्यगात्मा हैं, वहीं वे लीला नटवर गोपियों के इशारे पर नाचने वाले भी हैं। उन्हीं की इच्छा से, उन्हीं के प्रेमाह्वान से, उन्हीं के वंशी-निमन्त्रण से प्रेरित होकर गोपियाँ उनके पास आयीं; परंतु उन्होंने ऐसी भाव भंगी प्रकट की, ऐसा स्वाँग बनाया, मानो उन्हें गोपियों के आने का कुछ पता ही न हो। शायद गोपियों के मुँह से वे उनके ह्रदय की बात, प्रेम की बात सुनना चाहते हों। सम्भव है, वे विप्रलम्भ के द्वारा उनके मिलन-भाव को परिपुष्ट करना चाहते हों। बहुत करके तो ऐसा मालूम होता है कि कहीं लोग इसे साधारण बात न समझ लें, इसलिये साधारण ओगों के लिये उपदेश और गोपियों का अधिकार भी उन्होंने सबके सामने रख दिया। उन्होंने बतलाया—‘गोपियों! व्रज में कोई विपत्ति तो नहीं आयी, घोर रात्रि में यहाँ आने का कारण क्या है ? घर वाले ढूँढते होंगे, अब यहाँ ठहरना नहीं चाहिये। वन की शोभा देख ली, अब बच्चों और बछड़ों का भी ध्यान करो। धर्म के अनुकूल मोक्ष के खुले हुए द्वार अपने सगे-सम्बन्धियों की सेवा छोड़कर वन में दर-दर भटकना स्त्रियों के लिये अनुचित है। स्त्री को अपने पति की ही सेवा करनी चाहिये, वह कैसा भी क्यों न हो। यही सनातन धर्म है। इसी के अनुसार तुम्हें चलना चाहिये। मैं जानता हूँ कि तुम सब मुझसे प्रेम करती हो। परन्तु प्रेम में शारीरिक सन्निधि आवश्यक नहीं है। श्रवण, स्मरण, दर्शन और ध्यान से सन्निधि की अपेक्षा अधिक प्रेम बढ़ता है। जाओ, तुम संनातन सदाचार का पालन करो। इधर-उधर मन को मत भटकने दो।’
    श्रीकृष्ण की यह शिक्षा गोपियों के लिये नहीं, सामान्य नारी-जाति के लिये है। गोपियों का अधिकार विशेष था और उसको प्रकट करने के लिये ही भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसे वचन कहे थे। उन्हें सुनकर गोपियों को क्या दशा हुई इसके उत्तर में उन्होंने श्रीकृष्ण से क्या प्रार्थना की; वे श्रीकृष्ण को मनुष्य नहीं मानती, उनके पूर्ण ब्रम्ह सनातन स्वरुप को भलीभाँति जानती हैं और यह जानकर ही उनसे प्रेम करती हैं—इस बात का कितना सुन्दर परिचय दिया; यह सब विषय मूल में ही पाठ करने योग्य है। सचमुच जिनके ह्रदय में भगवान के परमतत्व का वैसा अनुपम ज्ञान और भगवान के प्रति वैसा महान् अनन्य अनुराग है और सच्चाई के साथ जिनकी वाणी में वैसे उद्गार हैं, वे ही विशेष अधिकारवान् है।
    गोपियों की प्रार्थना से यह बात स्पष्ट है कि वे श्रीकृष्ण को अन्तर्यामी, योगेश्वरेश्वर परमात्मा के रूप में पहचानती थीं और जैसे दूसरे लोग गुरु, सखा या माता-पिता के रूप में श्रीकृष्ण की उपासना करते हैं, वैसे ही वे पति के रूप में श्रीकृष्ण से प्रेम करती थीं, जो कि शास्त्रों में मधुर भाव के—उज्ज्वल परम रस के नाम से कहा गया है। जब प्रेम के सभी भाव पूर्ण होते हैं और साधकों को स्वामी-सखादि के रूप में भगवान मिलते हैं, तब गोपियों ने क्या अपराध किया था कि उनका यह उच्चतम भाव—जिसमें शान्त, दास्य, सख्य और वात्सल्य सब-के-सब अन्तर्भूत हैं और जो सबसे उन्नत एवं सबका अन्तिम रूप है—न पूर्ण हो ? भगवान ने उनका भाव पूर्ण किया और अपने को असंख्य रूपों में प्रकट करके गोपियों के साथ क्रीड़ा की। उनकी क्रीड़ा का स्वरुप बतलाते हुए कहा गया है—‘रेमे रमेशो ब्रजसुन्दरीभिर्यथार्भकः स्वप्रतिबिम्ब्तविभ्रमः।’ जैसे नन्हा-सा शिशु दर्पण अथवा जल में पड़े हुए अपने प्रतिबिम्बि के साथ खेलता है, वैसे ही रमेश भगवान और ब्रजसुन्दरियों ने रमण किया। अर्थात् सच्चिदानन्दघन सर्वान्तर्यामी प्रेम रस-स्वरुप लीला रसमय परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी ह्रादिनी-शक्तिरूपा आनन्द-चिन्मयरस-प्रतिभाविता अणि प्रतिमूर्ति से उत्पन्न अपनी प्रतिबिम्बि-स्वरूपा गोपियों से आत्मक्रीडा की। पूर्ण ब्रम्ह सनातन रसस्वरुप रसराज रसिक-शेखर रस परब्रम्ह अखिल रसामृत विग्रह भगवान श्रीकृष्ण की इस चिदानन्द-रसमयी दिव्य क्रीडा का नाम ही रास है। इसमें न कोई जड़ शरीर था, न प्राकृत अंग-संग था और न इसके सम्बन्ध की प्राकृत और स्थूल कल्पनाएँ ही थीं। यह था चिदानन्दमय भगवान का दिव्य विहार, जो दिव्य लीलाधाम में सर्वदा होते रहने पर भी कही-कभी प्रकट होता है।
    वियोग ही संयोग का पोषक है, माद और मद ही भगवान की लीला में बाधक हैं। भगवान की दिव्य लीला में मान और मद भी, जो कि दिव्य हैं, इसीलिये होते हैं कि उनसे लीला में रस की और बी पुष्टि हो। भगवान की इच्छा से ही गोपियों में लीनानुरूप मान और मद का संचार हुआ और भगवान अन्तर्धान हो गये। जिनके ह्रदय में लेशमात्र भी मद अवशेष है, नाममात्र भी मान का संस्कार शेष है, वे भगवान के सम्मुख रहने के अधिकारी नहीं। अथवा वे भगवान का, पास रहने पर भी, दर्शन नहीं कर सकते। परन्तु गोपियाँ गोपियाँ थीं, उनसे जगत् के किसी प्राणी की तिलमात्र भी तुलना नहीं है। भगवान के वियोग में गोपियों की क्या दशा हुई, इस बात रासलीला का प्रत्येक पाठक जानता है। गोपियों के शरीर-मन-प्राण, वे जो कुछ थीं—सब श्रीकृष्ण में एकतान हो गये। उनके प्रेमोन्माद का वह गीत, जो उनके प्राणों का प्रत्यक्ष प्रतीक है, आज भी भावुक भक्तों को भाव मग्न करके भगवान के लीला लोक में पहुँचा देता है। एक बार सरस ह्रदय से ह्रदयहीन होकर नहीं, पाठ करने मात्र से ही यह गोपियों की महत्ता सम्पूर्ण ह्रदय में भर देता है। गोपियों के उस ‘महाभाव’—उस 'अलौकिक प्रेमोन्माद’ को देखकर श्रीकृष्ण भी अन्तर्हित न रह सके, उनके सामने ‘साक्षान्मन्मथमन्मथः’ रूप से प्रकट हुए और उन्होंने मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया कि ‘गोपियों! मैं तुम्हारे प्रेमभाव का चिर-ऋणी हूँ। यदि मैं अनन्त काल तक तुम्हारी सेवा करता रहूँ, तो भी तुमसे, उऋण नहीं हो सकता। मेरे अन्तर्धान होने का प्रयोजन तुहारे चित्त को दुखाना नहीं था, बल्कि तुम्हारे प्रेम को और भी उज्ज्वल एवं समृद्ध काना था।’ इसके बाद रासक्रीड़ा प्रारम्भ हुई।
    जिन्होंने अध्यात्म शास्त्र का स्वाध्याय किया है, वे जानते हैं कि योग सिद्धि प्राप्त साधारण योगी भी कायव्यूह के द्वारा एक साथ अनेक शरीरों का निर्माण कर सकते हैं और अनेक स्थानों पर उपस्थित रहकर पृथक्-पृथक् कार्य कर सकते हैं। इन्द्रादि देवगण एक ही समय अनेक स्थानों पर उपस्थित होकर अनेक यज्ञों में युगपत् आहुति स्वीकार कर सकते हैं। निखिल योगियों और योगेश्वरों के ईश्वर सर्वसमर्थ भगवान श्रीकृष्ण यदि एक ही साथ अनेक गोपियों के साथ क्रीड़ा करें, तो इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है ? जो लोग भगवान को भगवान नहीं स्वीकार करते, वही अनेकों प्रकार की शंका-कुशंकाएँ करते हैं। भगवान की निज लीला में इन तर्कों का सर्वथा प्रवेश नहीं है।
    गोपियाँ श्रीकृष्ण की स्वकीया थीं या परकीया, यह प्रश्न भी श्रीकृष्ण के स्वरुप को भुलाकर ही उठाया जाता है। श्रीकृष्ण जीव नहीं हैं कि जगत् की वस्तुओं में उनका हिस्सेदार दूसरा भी जीव हो। जो कुछ भी था, है और आगे होगा—उसके एकमात्र पति श्रीकृष्ण ही हैं। अपनी प्रार्थना में गोपियों ने और परीक्षित् के प्रश्न के उत्तरों में श्रीशुकदेवजी ने यही बात कही है कि गोपी, गोपियों के पति, उनके पुत्र, सगे-सम्बन्धी और जगत् के समस्त प्राणियों के ह्रदय में आत्मा रूप से, परमात्मा रूप से जो प्रभु स्थित हैं—वही श्रीकृष्ण हैं। कोई भ्रम से, अज्ञान से, भले ही श्रीकृष्ण को पराया समझे; वे किसी के पराये नहीं हैं, सबके अपने हैं, सब उनके हैं। श्रीकृष्ण की दृष्टि से, जो कि वास्तविक दृष्टि है, कोई परकीया है ही नहीं; सब स्वकीया हैं, सब केवल अपना ही लीला विलास हैं, सभी स्वरुप भूता अन्तरंगा शक्ति हैं। गोपियाँ इस बात को जानती थीं और स्थान-स्थान पर उन्होंने ऐसा कहा है।
    ऐसी स्थिति में ‘जारभाव’ और ‘औपपत्य’ का कोई लौकिक अर्थ नहीं रह जाता। जहाँ काम नहीं है, अंग-संग नहीं है, वहाँ ‘औपपत्य’ और ‘जारभाव’ की कल्पना ही कैसे हो सकती है ? गोपियाँ परकीया नहीं थीं, स्वकीया थीं; परन्तु उनमें परकीया भाव था। परकीया होने में और स्वकीया भाव होने में आकाश-पाताल का अन्तर है। परकीया भाव में तीन बातें बड़े महत्व की होती हैं—अपने प्रियतम का निरन्तर चिन्तन, मिलन की उत्कट उत्कण्ठा और दोष दृष्टि का सर्वथा अभाव। स्वकीया भाव में निरन्तर एक साथ रहने के कारण ये तीनों बातें गौण हो जाती हैं; परन्तु परकीया भाव में ये तीनों भाव बनें रहते हैं। कुछ गोपियाँ जारभाव से श्रीकृष्ण को चाहती थीं, इसका इतना ही अर्थ है कि श्रीकृष्ण का निरन्तर चिन्तन करती थीं, मिलने के लिये उत्कण्ठित रहती थीं और श्रीकृष्ण के प्रत्येक व्यवहार को प्रेम की आँखों से ही देखती थीं। चौथा भाव विशेस महत्व का और है—वह यह कि स्वकीया अपने घर का, अपन और अपने पुत्र एवं कन्याओं का पालन-पोषण, रक्षणावेक्षण पति से चाहती है। वह समझती है कि इनकी देखरेख करना पति का कर्तव्य है; क्योंकि ये सब उसी के आश्रित हैं, और वह पति से ऐसी आशा भी रखती है। कितनी ही पतिपरायणा क्यों न हो, स्वकीया में यह सकाम भाव छिपा रहता ही है। परन्तु परकीया अपने प्रियतम से कुछ नहीं चाहती, कुछ भी आशा नहीं रखती; वह तो केवल अपने को देकर ही उसे सुखी करना चाहती है। श्रीगोपियों में यह भाव भी भलीभाँति प्रस्फुटित था। इसी विशेषता के कारण संस्कृत-साहित्य के कई ग्रन्थों में निरन्तर चिन्तन के उदाहरण स्वरुप परकीया भाव का वर्णन आता है।
    गोपियों के इस भाव के एक नहीं, अनेक दृष्टान्त श्रीमद्भागवत में मिलते हैं; इसलिये गोपियों पर परकीयापन का आरोप उनके भाव को न समझने के कारण हैं। जिसके जीवन में साधारण धर्म की एक हलकी-सी प्रकाश रेखा आ जाती है, उसी का जीवन परम पवित्र और दूसरों के लिये आदर्श-स्वरुप बन जाता है। फिर वे गोपियाँ, जिनका जीवन-साधना की चरम सीमा पर पहुँच चुका है, अथवा जो नित्य सिद्ध एवं भगवान की स्वरुपभूता हैं, या जिन्होंने कल्पों तक साधना करके श्रीकृष्ण की कृपा से उनका सेवाधिकार प्राप्त कर लिया है, सदाचार का उल्लंघन कैसे कर सकती हैं और समस्त धर्म-मर्यादाओं के संस्थापक श्रीकृष्ण पर धर्मोल्लंघन का लांछन कैसे लगाया जा सकता है ? श्रीकृष्ण और गोपियों के सम्बन्ध में इस प्रकार की कुकल्पनाएँ उनके दिव्य स्वरुप और दिव्य लीला के विषय में अनभिज्ञता ही प्रकट करती हैं।
    श्रीमद्भागवत पर, दशम स्कन्ध पर और रासपंचाध्यायी पर अब तक अनेकानेक भाष्य और टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं जिनके लेखकों में जगद्गुरु श्रीवल्लभाचार्य, श्री श्रीधरस्वामी, श्रीजीवगोस्वामी आदि हैं। उन लोगों ने बड़े विस्तार से रासलीला की महिमा समझायी है। किसी ने इसे काम पर विजय बतलाया है, किसी ने भगवान का दिव्य विहार बतलाया है और किसी ने इसका आध्यात्मिक अर्थ किया है। भगवान श्रीकृष्ण आत्मा हैं, आत्माकार वृत्ति श्रीराधा हैं और शेष आत्माभिमुख वृत्तियाँ गोपियाँ हैं। उनका धाराप्रवाह रूप से निरन्तर आत्म रमण ही रास है। किसी भी दृष्टि से देखें, रासलीला की महिमा अधिकाधिक प्रकट होती हैं।
    परन्तु इससे ऐसा नहीं मानना चाहिये कि श्रीमद्भागवत में वर्णित रास या रमण-प्रसंग केवल रूपक या कल्पनामात्र है। वह सर्वथा सत्य हैं और जैसा वर्णन है, वैसा ही मिलन-विलासादि रूप श्रृंगार का रसास्वादन भी हुआ था। भेद इतना ही है कि वह लौकिक स्त्री-पुरुषों का मिलन न था। उनके नायक थे सच्चिदानन्द विग्रह, परात्परतत्व, पूर्णतम स्वाधीन और निरंकुश स्वेच्छा विहारी गोपी नाथ भगवान नन्दनन्दन; और नायिका थीं स्वयं हृदिनीशक्ति श्रीराधाजी और उनकी कायव्यूहरूपा, उनकी घनीभूत मूर्तियाँ श्रीगोपीजन! अतएव इनकी यह लीला अप्राकृत थी। सर्वथा मीठी मिश्री की अत्यन्त कडुए इन्द्रायण (तूँबे)-जैसी कोई आकृति बना ली जाय, जो देखने में ठीक तूँबे-जैसी ही मालूम हो; परन्तु इससे असल में क्या वह मिश्री का तूँबा कडुआ थोड़े ही हो जाता है ? क्या तूँबे के आकार की होने से ही मिश्री के स्वाभाविक गुण मधुरता का अभाव हो जाता है ? नहीं-नहीं, वह किसी भी आकार में हो—सर्वत्र, सर्वदा और सर्वथा केवल मिश्री-ही-मिश्री है बल्कि इसमें लीला-चमत्कार की बात जरुर है। लोग समझते हैं कडुआ तूँबा, और होती है वह मधुर मिश्री। इसी प्रकार अखिलरसामृत सिन्धु सच्चिदानन्द विग्रह भगवान श्रीकृष्ण और उनकी अन्तरंगा अभिन्न स्वरूपा गोपियों की लीला भी देखने में कैसी ही क्यों न हो, वस्तुतः वह सच्चिदानन्दमयी ही है। उसमें सांसारिक गंदे काम का कडुआ स्वाद है ही नहीं। हाँ, यह अवश्य है कि इस लीला की नक़ल किसी को नहीं करनी चाहिये, करना सम्भव भी नहीं है। मायिक पदार्थों के द्वारा मायातीत भगवान का अनुकरण कोई कैसे कर सकता है ? कडुए तूँबे को चाहे जैसी सुन्दर मिठाई की आकृति दे दी जाय, उसका कडुआपन कभी मिट नहीं सकता। इसीलिये जिन मोहग्रस्त मनुष्यों ने श्रीकृष्ण की रास आदि अन्तंग लीलाओं का अनुकरण करके नायक-नायिका का रसास्वादन करना चाहा या चाहते हैं, उनका घोर पतन हुआ है और होगा। श्रीकृष्ण की इन लीलाओं का अनुकरण तो केवल श्रीकृष्ण ही कर सकते हैं। इसीलिये शुकदेवजी ने रासपंचाध्यायी के अन्त में सबको सावधान करते हुए कह दिया है कि भगवान के उपदेश तो सब मानने चाहिये, परन्तु उनके सभी आचरणों का अनुकरण नहीं करना चाहिये।
    जो लोग भगवान श्रीकृष्ण को केवल मनुष्य मानते हैं और केवल मानवीय भाव एवं आदर्श की कसौटी पर उनके चरित्र को कसना चाहते हैं, वे पहले ही शास्त्र से विमुख हो जाते हैं, उनके चित्त में धर्म की कोई धारणा ही नहीं रहती और वे भगवान को भी अपनी बुद्धि के पीछे चलाना चाहते हैं। इसलिये साधकों के सामने उनकी युक्तियों का कोई महत्व ही नहीं रहता। जो शास्त्र के ‘श्रीकृष्ण स्वयं भगवान हैं’ इस वचन को नहीं मानता, वह उनकी लीलाओं को किस आधार पर सत्य मानकर उनकी आलोचना करता है—यह समझ में नहीं आता। जैसे मानवधर्म, देवेधर्म और पशुधर्म पृथक्-पृथक् होते हैं, वैसे ही भगवद्धर्म भी पृथक् होता है और भगवान के चरित्र का परिक्षण उसकी ही कसौटी पर होना चाहिये। भगवान का एकमात्र धर्म है—प्रेमपरवशता, दयापरवशता और भक्तों की अभिलाषा की पूर्ति। यशोदा के हाथों से ऊखल में बँध जाने वाले श्रीकृष्ण अपने निजजन गोपियों के प्रेम के कारण उनके साथ नाचें, यह उनका सहज धर्म है।
    यदि यह हठ ही हो कि श्रीकृष्ण का चरित्र मानवीय धारणाओं और आदर्शों के अनुकूल ही होना चाहिये, तो इसमें भी कोई आपत्ति की बात नहीं है। श्रीकृष्ण की अवस्था उस समय दस वर्ष के लगभग थी, जैसा कि भागवत में स्पष्ट वर्णन मिलता है। गाँवों में रहने वाले बहुत-से दस वर्ष के बच्चे तो नंगे ही रहते हैं। उन्हें कामवृत्ति और स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध का कुछ ज्ञान ही नहीं रहता। लड़के-लड़की एक साथ खेलते हैं, नाचते हैं, गाते हैं, त्यौहार मानते हैं, गुडुई-गुडुए की शादी करते हैं, बारात ले जाते हैं और आपस में भोज-भात भी करते हैं। गाँवों के बड़े-बूढ़े लोग बच्चों का यह मनोरंजन देखकर प्रसन्न ही होते हैं, उनके मन में किसी प्रकार का दुर्भाव नहीं आता। ऐसे बच्चों को युवती स्त्रियाँ भी बड़े प्रेम से देखती हैं, आदर करती हैं, नहलाती हैं, खिलाती हैं। यह तो साधारण बच्चों की बात है। श्रीकृष्ण-जैसे असाधारण थी-शक्तिसम्पन्न बालक जिनके अनेक सद्गुण बाल्यकाल में ही प्रकट हो चुके थे; जिनकी सम्मति, चातुर्य्य और शक्ति से बड़ी-बड़ी विपत्तियों से व्रजवासियों ने त्राण पाया था; उनके प्रति वहाँ की स्त्रियों, बालिकाओं और बालकों का कितना आदर रहा होगा—इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। उनके सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्य से आकृष्ट होकर गाँव की बालक-बालिकाएँ उनके साथ ही रहती थीं और श्रीकृष्ण भी अपनी मौलिक प्रतिभा से राग, ताल आदि नये-नये ढंग से उनका मनोरंजन करते थे और उन्हें शिक्षा देते थे। ऐसे ही मनोरंजनों में से रासलीला भी एक थी, ऐसा समझना चाहिये। जो श्रीकृष्ण को केवल मनुष्य समझते हैं, उनकी दृष्टि में भी यह दोष की बात नहीं होनी चाहिये। वे उदारता और बुद्धिमानी के साथ भागवत में आये हुए काम-रति आदि शब्दों का ठीक वैसा ही अर्थ समझें, जैसा कि उपनिषद् और गीता में इन शब्दों का अर्थ होता है। वास्तव में गोपियों के निष्कपट प्रेम का ही नामान्तर काम है और भगवान श्रीकृष्ण का आत्मरमण अथवा उनकी दिव्य क्रीड़ा ही रति है। इसीलिये स्थान-स्थान पर उनके लिये विभु, परमेश्वर, लक्ष्मीपति, भगवान्, योगेश्वरेश्वर, आत्माराम, मन्मथमन्मथ आदि शब्द आये हैं—जिससे किसी को कोई भ्रम न हो जाय।
    जब गोपियाँ श्रीकृष्ण की वंशीध्वनि सुनकर वन में जाने लगीं थीं, तब उनके सगे-सम्बन्धियों ने उन्हें जाने से रोका था। रात में अपनी बालिकाओं को भला, कौन बाहर जाने देता। फिर भी वे चली गयीं, और इससे घर वालों को किसी प्रकार की अप्रसन्नता नहीं हुई। और न तो उन्होंने श्रीकृष्ण पर या गोपियों पर किसी प्रकार का लान्छन ही लगाया। उनका श्रीकृष्ण पर, गोपियों पर विश्वास था और वे उनके बचपन और खेलों से परिचित थे। उन्हें तो ऐसा मालूम हुआ मानो गोपियाँ हमारे पास ही हैं। इसको दो प्रकार से समझ सकते हैं। एक तो यह कि श्रीकृष्ण के प्रति उनका इतना विश्वास था कि श्रीकृष्ण के पास गोपियों का रहना भी अपने ही पास रहना है। यह तो मानवीय दृष्टि है। दूसरी दृष्टि यह है कि श्रीकृष्ण की योगमाया ने ऐसी व्यवस्था कर रखी थी, गोपों को वे घर में ही दिखती थीं। किसी भी दृष्टि से रासलीला दूषित प्रसंग नहीं है, बल्कि अधिकारी पुरुषों के लिये तो यह सम्पूर्ण मनोमल को नष्ट करने वाला है। रासलीला के अन्त में कहा गया है कि जो पुरुष श्रद्धा-भक्ति पूर्वक रासलीला का श्रवण और वर्णन करता है, उसके ह्रदय का रोग-काम बहुत ही शीघ्र नष्ट हो जाता है और उसे भगवान का प्रेम प्राप्त होता है। भागवत में अनेक स्थान पर ऐसा वर्णन आता है कि जो भगवान की माया का वर्णन करता है, वह माया से पार हो जाता है। जो भगवान के कामजय का वर्णन करता है, वह काम पर विजय प्राप्त करता है। राजा परीक्षित् ने अपने प्रश्नों में जो शंकाएँ की हैं, उनका उत्तर प्रश्नों के अनुरूप ही अध्याय 29 के श्लोक 13 से 16 तक और अध्याय 33 के श्लोक 30 से 37 तक श्रीशुकदेवजी ने दिया है।
    उस उत्तर से वे शंकाएँ तो हट गयी हैं, परन्तु भगवान की दिव्य लीला का रहस्य नहीं खुलने पाया; सम्भवतः उस रहस्य को गुप्त रखने के लिये ही 33वें अध्याय में रास लीला प्रसंग समाप्त कर दिया गया। वस्तुतः इस लीला के गूढ़ रहस्य की प्राकृत-जगत् में व्याख्या की भी नहीं जा सकती क्योंकि यह इस जगत् की क्रीड़ा ही नहीं है। यह तो उस दिव्य आनन्दमय रसमय राज्य की चमत्कारमयी लीला है, जिसके श्रवण और दर्शन के लिये परमहंस मुनि गण भी सदा उत्कण्ठित रहते हैं। कुछ लोग इस लीला प्रसंग को भागवत में क्षेपक मानते हैं, वे वास्तव में दुराग्रह करते हैं। क्योंकि प्राचीन-से-प्राचीन प्रतियों में भी यह प्रसंग मिलता है और जरा विचार करके देखने से यह सर्वथा सुसंगत और निर्दोष प्रतीत होता है। भगवान श्रीकृष्ण कृपा करके ऐसी विमल बुद्धि दें, जिससे हम लोग इसका कुछ रहस्य समझने में समर्थ हों। भगवान के इस दिव्य-लीला के वर्णन का यही प्रयोजन है कि जीव गोपियों के उस अहैतुक प्रेम का, जो कि श्रीकृष्ण को ही सुख पहुँचाने के लिये था, स्मरण करे और उसके द्वारा भगवान के रसमय दिव्य लीला लोक में भगवान के अनन्त प्रेम का अनुभव करे। हमें रास लीला का अध्ययन करते समय किसी प्रकार की भी शंका न करके इस भाव को जगाये रखना चाहिये।
    हनुमानप्रसाद पोद्दार

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