श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 44 श्लोक 1-13

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दशम स्कन्ध: चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः (44) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ने चाणूर आदि के वध का निश्चित संकल्प कर लिया। जोड़ बन दिये जाने पर श्रीकृष्ण चाणूर से और बलरामजी मुष्टिक से जा भिड़े । वे लोग एक-दूसरे को जीत लेने की इच्छा से हाथ से हाथ बाँधकर और पैरों में पैर अड़ाकर बलपूर्वक अपनी-अपनी ओर खींचने गये । वे पंजों से पंजे, घुटनों से घुटने, माथे से माथा और छाती से छाती भिड़ाकर एक-दूसरे पर चोट करने लगे । इस प्रकार दाँव-पेंच करते-करते अपने-अपने जोड़ीदार को पकड़कर इधर-उधर घुमाते, दूर ढकेल देते, जोर से जकड़ लेते, लिपट जाते, उठाकर पटक देते, छूटकर निकल भागते और कभी छोड़कर पीछे हट जाते थे। इस प्रकार एक-दूसरे को रोकते, प्रहार करते और अपने जोड़ीदार को पछाड़ देने की चेष्टा करते। कभी कोई नीचे गिर जाता, तो दूसरा उसे घुटनों और पैरों में दबाकर उठा लेता। हाथों से पकड़कर ऊपर ले जाता। गले में लिपट जाने पर ढकेल देता और आवश्यकता होने पर हाथ-पाँव इकट्ठे करके गाँठ बाँध देता ।

परीक्षित! इस दंगल को देखने के लिये नगर की बहुत-सी महिलाएँ भी आयी हुई थीं। उन्होंने जब देखा कि बड़े-बड़े पहलवानों के साथ ये छोटे-छोटे बलहीन बालक लड़ाये जा रहे हैं, तब वे अलग-अलग टोलियाँ बनाकर करुणावश आपस में बात-चीत करने लगीं— ‘यहाँ राजा कंस के सभासद् बड़ा अन्याय और अधर्म कर रहे हैं। कितने खेद की बात है कि राजा के सामने ही ये बली पहलवानों और निर्बल बालकों के युद्ध का अनुमोदन करते हैं । बहिन! देखो, इन पहलवानों का एक-एक अंग व्रज के समान कठोर है। ये देखने में बड़े भारी पर्वत-से मालूम होते हैं। परन्तु श्रीकृष्ण और बलराम अभी जवान भी नहीं हुए हैं। इसकी किशोरावस्था है। इनका एक-एक अंग अत्यन्त सुकुमार है। कहाँ ये और कहाँ वे ? जितने लोग यहाँ इकट्ठे हुए हैं, देख रहे हैं, उन्हें अवश्य-अवश्य धर्मोल्लंघन का पाप लगेगा। सखी! अब हमें भी यहाँ से चल देना चाहिये। जहाँ अधर्म की प्रधानता हो, वहाँ कभी न रहे; यही शास्त्र का नियम है । देखो, शास्त्र कहता है कि बुद्धिमान पुरुष को सभासदों के दोषों को जानते हुए सभा में जाना ठीक नहीं है। क्योंकि वहाँ जाकर उन अवगुणों को कहना, चुप रह जाना अथवा मैं नहीं जानता ऐसा कह देना—ये तीनों ही बातें मनुष्य को दोष भागी बनाती हैं । देखो, देखो, श्रीकृष्ण शत्रु के चारों ओर पैंतरा बदल रहे हैं। उनके मुख पर पसीने की बूँदें ठीक वैसे ही शोभा दे रही हैं, जैसे कमलकोशल पर जल की बूँदें । सखियों! क्या तुम नहीं देख रही हो कि बलरामजी का मुख मुष्टिक के प्रति क्रोध के कारण कुछ-कुछ लाल लोचनों से युक्त हो रहा है! फिर भी हास्य का अनिरुद्ध आवेग कितना सुन्दर लग रहा है ।

सखी! सच पूछो तो व्रजभूमि ही परम पवित्र और धन्य है। क्योंकि वहाँ ये पुरुषोत्तम मनुष्य के वेष में छिपकर रहते हैं। स्वयं भगवान शंकर और लक्ष्मीजी जिनके चरणों की पूजा करती हैं, वे ही प्रभु वहाँ रंग-बिरंगे जंगली पुष्पों की माला धारण कर लेते हैं तथा बलरामजी के साथ बाँसुरी बजाते, गौएँ चराते और तरह-तरह खेल खेलते हुए आनन्द से विचरते हैं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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