श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 44 श्लोक 24-38

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दशम स्कन्ध: चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः (44) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 24-38 का हिन्दी अनुवाद

इसी प्रकार मुष्टिक ने भी पहले बलरामजी को एक घूँसा मारा। इस पर बली बलरामजी ने उसे बड़े जोर से एक तमाचा जड़ दिया । तमाचा लगने से वह काँप उठा और आँधी से उखड़े हुए वृक्ष के समान अत्यन्त व्यथित और अन्त में प्राणहीन होकर खून उगलता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा । हे राजन्! इसके बाद योद्धाओं में श्रेष्ठ भगवान बलरामजी ने अपने सामने आते ही कूट नामक पहलवान को खेल-खेल में ही बायें हाथ के घूँसे से उपेक्षापूर्वक मार डाला । उसी समय भगवान श्रीकृष्ण ने पैर की ठोकर से शल का सिर धड़ से अलग कर दिया और तोशल को तिनके की तरह चीर कर दो टुकड़े कर दिया। इस प्रकार दोनों धराशायी हो गये । जब चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशल—ये पाँचों पहलवान मर चुके, तब जो बच रहे थे, वे अपने प्राण बचाने के लिये स्वयं वहाँ भाग खड़े हुए । उनके भाग जाने पर भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी अपने समवयस्क ग्वाल-बालों को खींच-खींचकर उनके साथ भिड़ने और नाच-नाचकर भेरीध्वनि के साथ अपने नूपुरों की झनकार को मिलाकर मल्लक्रीडा—कुश्ती के खेल करने लगे ।

भगवान श्रीकृष्ण और बलराम की इस अद्भुत लीला को देखकर सभी दर्शकों को बड़ा आनन्द हुआ। श्रेष्ठ ब्राम्हण और साधु पुरुष ‘धन्य है, धन्य है,—इस प्रकार कहकर प्रशंसा करने लगे। परन्तु कंस को इससे बड़ा दुःख हुआ। वह और भी चिढ़ गया । जब उसके प्रधान पहलवान मार डाले गये और बचे हुए सब-के-सब भाग गये, तब भोजराज कंस ने अपने बाजे-गाजे बंद करा दिये और अपने सेवकों को यह आज्ञा दी— ‘अरे, वसुदेव के इन दुश्चरित्र लड़कों को नगर से बाहर निकाल दो। गोपों का सारा धन छीन लो और दुर्बुद्धि नन्द को कैद कर लो । वसुदेव भी बड़ा कुबुद्धि और दुष्ट है। उसे शीघ्र मार डालो और उग्रसेन मेरा पिता होने पर भी अपने अनुयायियों के साथ शत्रुओं से मिला हुआ है। इसलिये उसे भी जीता मत छोडो’। कंस इस प्रकार बढ़-बढ़कर बकवाद कर रहा था कि अविनाशी श्रीकृष्ण कुपित होकर फुर्ती से वेगपूर्वक उछलकर लीला से ही उसके ऊँचे मंच पर जा चढ़े । जब मनस्वी कंस ने देखा कि मेरे मृत्युरूप भगवान श्रीकृष्ण सामने आ गये, तब वह सहसा अपने सिंहासन से उठ खड़ा हुआ और हाथ में ढाल तथा तलवार उठा ली । हाथ में तलवार लेकर वह चोट करने का अवसर ढूँढता हुआ पैंतरा बदलने लगा। आकाश में उड़ते हुए बाज के समान वह कभी दायीं ओर जाता तो कभी बायीं ओर। परन्तु भगवान का प्रचण्ड तेज अत्यन्त दुस्सह है। जैसे गरुड़ साँप को पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान ने बलपूर्वक उसे पकड़ लिया । इसी समय कंस का मुकुट गिर गया और भगवान ने उसके केश पकड़कर उसे भी उस ऊँचे मंच से रंगभूमि में गिरा दिया। फिर परम स्वतन्त्र और सारे विश्व के आश्रय भगवान श्रीकृष्ण उसके ऊपर स्वयं कूद पड़े । उनके कूदते ही कंस की मृत्यु हो गयी। सबके देखते-देखते भगवान श्रीकृष्ण कंस की लाश को धरती पर उसी प्रकार घसीटने लगे, जैसे सिंह हाथी को घसीटे। नरेन्द्र! उस समय सबके मुँह से ‘हाय! हाय!’ की बड़ी ऊँची आवाज सुनायी पड़ी ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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