श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 45 श्लोक 42-50
दशम स्कन्ध: पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः (45) (पूर्वार्ध)
तब उसके शरीर का शंख लेकर भगवान रथ पर चले आये। वहाँ से बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण ने यमराज की प्रिय पुरी संयमी में जाकर अपना शंख बजाया। शंख का शब्द सुनकर सारी प्रजा का शासन करने वाले यमराज ने उनका स्वागत किया और भक्तिभाव से भरकर विधिपूर्वक उनकी बहुत बड़ी पूजा की। उन्होंने नम्रता से झुककर समस्त प्राणियों के ह्रदय में विराजमान सच्चिदानंद-स्वरुप भगवान श्रीकृष्ण से कहा—‘लीला से ही मनुष्य बने हुए सर्व्यापक परमेश्वर! मैं आप दोनों की क्या सेवा करूँ ?’।
श्रीभगवान ने कहा—‘यमराज! यहाँ अपने कर्मबन्धन के अनुसार मेरा गुरुपुत्र लाया गया है। तुम मेरी आज्ञा स्वीकार करो और उसके कर्म पर ध्यान न देकर उसे मेरे पास ले आओ ।
यमराज ‘जो आज्ञा’ कहकर भगवान का आदेश स्वीकार किया और उनका गुरुपुत्र ला दिया। तब यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी उस बालक को लेकर उज्जैन लौट आये और उसे अपने गुरुदेव को सौंपकर कहा कि ‘आप और जो कुछ चाहें, माँग लें’ ।
गुरूजी ने कहा—‘बेटा! तुम दोनों ने भलीभाँति गुरु दक्षिणा दी। अब और क्या चाहिये ? जो तुम्हारे जैसे पुरुषोत्तमों का गुरु है, उसका कौन-सा मनोरथ अपूर्ण रह सकता है ? वीरों! अब तुम दोनों अपने घर जाओ। तुम्हें लोकों को पवित्र करने वाली कीर्ति प्राप्त हो। तुम्हारी पढ़ी हुई विद्या इस लोक और परलोक में सदा नवीन बनी रहे, कभी विस्मृत न हो’ । बेटा परीक्षित्! फिर गुरूजी से आज्ञा लेकर वायु के समान वेग और मेघ के समान शब्द वाले रथ पर सवार होकर दोनों भाई मथुरा लौट आये । मथुरा की प्रजा बहुत दिनों तक श्रीकृष्ण और बलराम को न देखने से अत्यन्त दुःखी हो रही थी। अब उन्हें आया हुआ देख सब-के-सब परमानन्द में मग्न हो गये, मानो खोया हुआ धन मिल गया हो ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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