श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 53 श्लोक 1-17
दशम स्कन्ध: त्रिपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः (53) (उत्तरार्धः)
रुक्मिणी हरण
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण ने विदर्भ राजकुमारी रुक्मिणीजी का यह सन्देश सुनकर अपनी हाथ से ब्राम्हण देवता का हाथ पकड़ लिया और हँसते हुए यों बोले ।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—ब्राम्हण देवता! जैसे विदर्भ राजकुमारी मुझे चाहती हैं, वैसे ही मैं भी उन्हें चाहता हूँ। मेरा चित्त उन्हीं में लगा रहता है। कहाँ तक कहूँ, मुझे रात के समय नींद तक नहीं आती। मैं जानता हूँ कि रुक्मी ने द्वेषवश मेरा विवाह रोक दिया है । परन्तु ब्राम्हण देवता! आप देखियेगा, जैसे लकड़ियों को मथकर—एक दूसरे से रगड़कर मनुष्य उनमें से आग निकाल लेता है, वैसे ही युद्ध में उन नामधारी क्षत्रियकुल-कलंकों को तहस-नहस करके अपने से प्रेम करने वाली परमसुन्दरी राजकुमारी को मैं निकाल लाउँगा ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! मधुसूदन श्रीकृष्ण ने यह जानकर कि रुक्मिणी के विवाह की लग्न परसों रात्रि ही है, सारथि को आज्ञा दी कि ‘दारुक! तनिक भी विलम्ब न करके रथ जोत लाओ’। दारुक भगवान के रथ में शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलवाहक नाम के चार घोड़े जोतकर उसे ले आया और हाथ जोड़कर भगवान के सामने खड़ा हो गया । शूरनन्दन श्रीकृष्ण ब्राम्हण देवता को पहले रथ पर चढ़ाकर फिर आप भी सवार हुए और उन शीघ्रगामी घोड़ों के द्वारा एक ही रात में आनर्त-देह से विदर्भ देश में जा पहुँचे ।
कुण्ड़िन नरेश महाराज भीष्मक अपने बड़े लड़के रुक्मी के स्नेहवश अपनी कन्या शिशुपाल को देने के लिये विवाहोत्सव की तैयारी करा रहे थे । नगर के राजपथ, चौराहे तथा गली-कूचे झाड़-बुहार दिये गये थे, उन पर छिड़काव किया जा चुका था। चित्र-विचित्र, रंग-बिरंगी, छोटी-बड़ी झंडियाँ और पताकाएँ लगा दी गयी थीं। तोरण बाँध दिये गये थे । वहाँ के स्त्री-पुरुष पुष्प-माला, हार, इत्र-फुलेल, चन्दन, गहने और निर्मल वस्त्रों से सजे हुए थे। वहाँ के सुन्दर-सुन्दर घरों में से अगर के घूप की सुगन्ध फ़ैल रही थी । परीक्षित्! राजा भीष्मक ने पितर और देवताओं का विधिपूर्वक पूजन करके ब्राम्हणों को भोजन कराया और नियमानुसार स्वस्तिवाचन भी । सुशोभित दाँतों वाली परमसुन्दरी राजकुमारी रुक्मिणी को स्नान कराया गया, उनके हाथों में मंगलसूत्र कंकण पहनाये गये, कोहबर बनाया गया, दो नये-नये वस्त्र उन्हें पहनाये गये और वे उत्तम-उत्तम आभूषणों से विभूषित की गयीं । श्रेष्ठ ब्राम्हणों ने साम, ऋक् और यजुर्वेद के मन्त्रों से उनकी रक्षा की और अथर्ववेद के विद्वान् पुरोहित ने गृह-शान्ति के लिये हवन किया । राजा भीष्मक कुलपरम्परा और शास्त्रीय विधियों के बड़े जानकार थे। उन्होंने सोना, चाँदी, वस्त्र, गुड़ मिले हुए तिल और गौएँ ब्राम्हणों को दीं ।
इसी प्रकार चेदिनरेश राजा दमघोष ने भी अपने पुत्र शिशुपाल के लिये मन्त्रज्ञ ब्राम्हणों से अपने पुत्र के विवाह-सम्बन्धी मंगलकृत्य कराये । इसके बाद वे मद चुआते हुए हाथियों, सोने की मालाओं से सजाये हुए रथों, पैदलों तथा घुड़सवारों की चतुरंगिणी सेना साथ लेकर कुण्निपुर जा पहुँचे । विदर्भराज भीष्मक ने आगे आकर उनका स्वागत-सत्कार और प्रथा के अनुसार अर्चन-पूजन किया। इसके बाद उन लोगों को पहले से ही निश्चित किये हुए जनवासों में आनन्दपूर्वक ठहरा दिया । उस बारात में शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र, विदूरथ और पौण्ड्रक आदि शिशुपाल के सहस्त्रों मित्र नरपति आये थे ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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