श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 54 श्लोक 43-53
दशम स्कन्ध: चतुःपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः (54) (उत्तरार्धः)
देवि! जो लोग भगवान की माया से मोहित होकर देह को ही आत्मा मान बैठते हैं, उन्हीं को ऐसा आत्म मोह होता है कि यह मित्र है, यह शत्रु है और यह उदासीन है । समस्त देहधारियों की आत्मा एक ही है और कार्य-कारण से, माया से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। जल और घड़ा आदि उपाधियों के भेद से जैसे सूर्य, चन्द्रमा और प्रकाशयुक्त पदार्थ और आकाश भिन्न-भिन्न मालूम पड़ते हैं; परन्तु हैं एक ही, वैसे ही मूर्ख लोग शरीर आदि और अन्तवाला है। पञ्चभूत, पञ्चप्राण, तन्मात्रा और त्रिगुण ही इसका स्वरुप है। आत्मा में उसके अज्ञान से ही इसकी कल्पना हुई है और वह कल्पित शरीर ही, जो उसे ‘मैं समझता है’, उसको जन्म-मृत्यु के चक्कर में ले जाता है । साध्वी! नेत्र और रूप दोनों ही सूर्य के द्वारा प्रकाशित होते हैं। सूर्य ही उनका कारण है। इसलिये सूर्य के साथ नेत्र और रूप का न तो कभी वियोग होता है और न संयोग। इसी प्रकार समस्त संसार की सत्ता आत्मसत्ता के कारण जान पड़ती है, समस्त संसार का प्रकाशक आत्मा ही है। फिर आत्मा के साथ दूसरे असत् पदार्थों का संयोग या वियोग हो ही कैसे सकता है ? जन्म लेना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और मरना ये सारे विकार शरीरर के ही होते हैं, आत्मा के नहीं। जैसे कृष्णपक्ष में कलाओं का ही क्षय होता है, चन्द्रमा का नहीं, परन्तु अमावस्या के दिन व्यवहार में लोग चन्द्रमा का ही क्षय हुआ कहते-सुनते हैं; वैसे ही जन्म-मृत्यु आदि सारे विकार शरीर के ही होते हैं, परन्तु लोग उसे भ्रमवश अपना—अपने आत्मा का मान लेते हैं । जैसे सोया हुआ पुरुष किसी पदार्थ के न होने पर भ स्वपन में भोक्ता, भोग्य और भोगरूप फलों का अनुभव करता है, उसी प्रकार अज्ञानी लोग झूठ-मूठ संसार-चक्र का अनुभव करते हैं । इसलिये साध्वी! अज्ञान के कारण होने वाले इस शोक को त्याग दो। यह शोक अंतःकरण को मुरझा देता है, मोहित कर देता है। इसलिये इसे छोड़कर तुम अपने स्वरुप में स्थित हो जाओ’ ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब बलरामजी ने इस प्रकार समझाया, तब परमसुन्दरी रुक्मिणीजी ने अपने मन का मैल मिटाकर विवेक-बुद्धि से उसका समाधान किया । रुक्मी की सेना और उसके तेज का नाश हो चुका था। केवल प्राण बच रहे थे। उसके चित्त की सारी आशा-अभिलाषाएँ व्यर्थ हो चुकी थीं और शत्रुओं नी अपमानित करके उसे छोड़ दिया था। उसे अपने विरूप किये जाने की कष्टदायक स्मृति भूल नहीं पाती थी । अतः उसने अपने रहने के लिये भोजकट नाम की एक बहुत बड़ी नगरी बसायी। उसने पहले ही यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि ‘दुर्बुद्धि कृष्ण को मारे बिना और अपनी छोटी बहिन को लौटाये बिना मैं कुण्ड़िन पुर में प्रवेश नहीं करूँगा।’ इसलिये क्रोध करके वह वहीँ रहने लगा ।
परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सब राजाओं को जीत लिया और विदर्भ राजकुमारी रुक्मिणीजी को द्वारका में लाकर उनका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-