श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 58 श्लोक 41-55
दशम स्कन्ध: अष्टपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः (58) (उत्तरार्धः)
राजा नग्नजित् ने कहा—‘प्रभो! आप समस्त गुणों के धाम हैं, एकमात्र आश्रय हैं। आपके वक्षःस्थल पर भगवती लक्ष्मी नित्य-निरन्तर निवास करती हैं। आपसे बढ़कर कन्या के लिये अभीष्ट वर भला और कौन हो सकता है ? परन्तु यदुवंशशिरोमणे! हमने पहले ही इस विषय में एक प्रण कर लिया है। कन्या के लिये कौन-सा वर उपयुक्त है, उसका बल-पौरुष कैसा है—इत्यादि बातें जानने के लिये ही ऐसा किया गया है । वीरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण! हमारे ये सातों बैल किसी के वश में न आने वाले और बिना सधाये हुए हैं। इन्होने बहुत-से राजकुमारों के अंगों को खण्डित करके उनका उत्साह तोड़ दिया है । श्रीकृष्ण! यदि इन्हें आप ही नाथ लें, अपने वश में कर लें, तो लक्ष्मीपते! आप ही हमारी कन्या के लिये अभीष्ट वर होंगे । भगवान श्रीकृष्ण ने राजा नग्नजनित् का ऐसा प्रण सुनकर कमर में फेंट कस ली और अपने सात रूप बनाकर खेल-खेल में ही उन बैलों को नाथ लिया । इससे बैलों का घमंड चूर हो गया और उनका बल-पौरुष भी जाता रहा। अब भगवान श्रीकृष्ण उन्हें रस्सी से बाँधकर इस प्रकार खींचने लगे, जैसे खेलते समय नन्हा-सा बालक काठ के बैलों को घसीटता है । राजा नग्नजनित् को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने प्रसन्न होकर भगवान श्रीकृष्ण को अपनी कन्या का दान कर दिया और सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण श्रीकृष्ण ने भी अपने अनुरूप पत्नी सत्या का विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया । रानियों ने देख कि हमारी कन्या को उसके अत्यन्त प्यारे भगवान श्रीकृष्ण ही पति के रूप में प्राप्त हो गये हैं। उन्हें बड़ा आनन्द हुआ और चारों ओर बड़ा भारी उत्सव मनाया जाने लगा । शंख, ढोल, नगारे बजने लगे। सब ओर गाना-बजाना होने लगा। ब्राम्हण आशीर्वाद देने लगे। सुन्दर वस्त्र, पुष्पों के हार और गहनों से सज-धजकर नगर के नर-नारी आनन्द मनाने लगे । राजा नग्नजनित् ने दस हजार गौएँ और तीन हजार ऐसी नवयुवती दासियाँ जो सुन्दर वस्त्र तथा गले में स्वर्णहार पहने हुए थीं, दहेज़ में दीं। इसके साथ ही नौ हजार हाथी, नौ लाख रथ, नौ करोड़ घोड़े और नौ अरब सेवक भी दहेज में दिये । कोसलनरेश राजा नग्नजनित् ने कन्या और दामाद को रथ पर चढ़ाकर एक बड़ी सेना के साथ विदा किया। उस समय उनका ह्रदय वात्सल्य-स्नेह के उद्रेक से द्रवित हो रहा था ।
परीक्षित्! यदुवंशियों ने और राजा नग्नजित् के बैलों ने पहले बहुत-से राजाओं का बल-पौरुष धूल में मिला दिया था। जब उन राजाओं ने यह समाचार सुना, तब उनसे भगवान श्रीकृष्ण की यह विजय सहन न हुई। उन लोगों ने नाग्नजिती सत्या को लेकर जाते समय मार्ग में भगवान श्रीकृष्ण को घेर लिया । और वे बड़े वेग से उनपर बाणों की वर्षा करने लगे। उस समय पाण्डववीर अर्जुन ने अपने मित्र भगवान श्रीकृष्ण का प्रिय करने के लिये गाण्डीव धनुष धारण करके—जैसे सिंह छोटे-मोटे पशुओं को खदेड़ दे, वैसे ही उन नरपतियों को मार-पीटकर भगा दिया । तदनन्तर यदुवंशशिरोमणि देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण उस दहेज़ और सत्या के साथ द्वारका में आये और वहाँ रहकर गृहस्थोचित विहार करने लगे ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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