श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 64 श्लोक 1-13

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दशम स्कन्ध: चतुःषष्टितमोऽध्यायः (64) (उत्तरार्धः)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुःषष्टितमोऽध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


नृग राजा की कथा

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित्! एक दिन साम्ब, प्रद्दुम्न, चारुभानु और गदा आदि यदुवंशी राजकुमार घुमने के लिये उपवन में गये । वहाँ बहुत देर तक खेल खेलते हुए उन्हें प्यास लग आयी। अब वे इधर-उदा जल की खोज करने लगे। वे एक कुएँ के पास गये; उसमें जल तो था नहीं, एक बड़ा विचित्र जीव दीख पड़ा । वह जीव पर्वत के समान आकार का एक गिरगिट था। उसे देखकर उनके आश्चर्य की सीमा न रही। उनका ह्रदय करुणा से भर आया और वे उसे बाहर निकालने का प्रयत्न करने लगे । परन्तु जब वे राजकुमार उस गिरे हुए गिरगिट को चमड़े और सूत की रस्सियों से बाँधकर बाहर न निकाल सके, तब कुतूहलवश उन्होंने यह आश्चर्यमय वृत्तान्त भगवान श्रीकृष्ण के पास जाकर निवेदन किया । जगत् के जीवनदाता कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण उस कुएँ पर आये। उसे देखकर उन्होंने बायें हाथ से खेल-खेल में—अनायास ही उसको बाहर निकाल लिया । भगवान श्रीकृष्ण के करकमलों का स्पर्श होते ही उसका गिरगिट-रूप जाता रहा और वह एक स्वर्गीय देवता के रूप में परिणत हो गया। अब उसके शरीर का रंग तपाये हुए सोने के समान चमक रहा था। और उसके शरीर पर अद्भुत वस्त्र, आभूषण और पुष्पों के हार शोभा पा रहे थे । यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण जानते थे कि इस दिव्य पुरुष को गिरगिर-योनि क्यों मिली थी, फिर भी वह कारण सर्वसाधारण को मालूम हो जाय, इसलिये उन्होंने उस दिव्य पुरुष से पूछा—‘महाभाग! तुम्हारा यह रूप तो बहुत ही सुन्दर है। तुम हो कौन ? मैं तो ऐसा समझता हूँ कि तुम अवश्य ही कोई श्रेष्ठ देवता हो । कल्याणमूर्ते! किस कर्म के फल से तुम्हें इस योनि में आना पड़ा था ? वास्तव में तुम इसके योग्य नहीं हो। हम लोग तुम्हारा वृत्तान्त जानना चाहते हैं। यदि तुम हम लोगों को वह बतलाना उचित समझो तो अपना परिचय अवश्य हो’।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब अनन्तमूर्ति भगवान श्रीकृष्ण ने राजा नृग से [क्योंकि वे ही इस रूप में प्रकट हुए थे] इस प्रकार पूछा, तब उन्होंने अपना सूर्य के समान जाज्वल्यमान मुकुट झुकाकर भगवान को प्रणाम किया और वे इस प्रकार कहने लगे ।

राजा नृग ने कहा—प्रभो! मैं महाराज इक्ष्वाकु का पुत्र राजा नृग हूँ। जब कभी किसी ने आपके सामने दानियों की गिनती की होगी, तब उसमें मेरा नाम भी अवश्य ही आपके कानों में पड़ा होगा । प्रभो! आप समस्त प्राणियों की एक-एक वृत्ति के साक्षी हैं। भूत और भविष्य का व्यवधान भी आपके अखण्ड ज्ञान में किसी प्रकार की बाधा नहीं डाल सकता। अतः आपसे छिपा ही क्या है ? फिर भी मैं आपकी आज्ञा का पालन करने के लिये कहता हूँ । भगवन्! पृथ्वी में जितने धूलिकण हैं, आकाश में जितने तारे हैं और वर्षा में जितनी जल की धाराएँ गिरती हैं, मैंने उतनी ही गौएँ दान की थीं । वे सभी गौएँ दुधार, नौजवान, सीधी, सुन्दर, सुलक्षणा और कपिला थीं। उन्हें मैंने न्याय के धन से प्राप्त किया था। सबके साथ बछड़े थे। उनके सींगों में सोना मढ़ दिया गया था और खुरों में चाँदी। उन्हें वस्त्र, हार और गहनों से सजा दिया जाता था। ऐसी गौएँ मैने दी थीं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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