श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 69 श्लोक 13-21
दशम स्कन्ध: एकोनसप्ततितमोऽध्यायः(69) (उत्तरार्ध)
देवर्षि नारदजी ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण उस महल की स्वामिनी रुक्मिणीजी के साथ बैठे हुए हैं और वे अपने हाथों भगवान को सोने की डांडीवाले चँवर से हवा कर रही हैं। यद्यपि उस महल में रुक्मिणीजी के समान ही गुण, रूप, अवस्था और वेष-भूषावाली सहस्त्रों दासियाँ भी हर समय विद्यमान रहती थीं ।
नारदजी को देखते ही समस्त धार्मिकों के मुकुटमणि भगवान श्रीकृष्ण रुक्मिणीजी के पलँग से सहसा उठ खड़े हुए। उन्होंने देवर्षि नारद के युगलचरणों में मुकुटयुक्त सिर से प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उन्हें अपने आसन पर बैठाया परीक्षित्! इसमें सन्देह नहीं कि भगवान श्रीकृष्ण चराचर जगत् के परम गुरु हैं और उनके चरणों का धोवन गंगाजल सारे जगत् को पवित्र करने वाला है। फिर भी वे परमभक्तवत्सल और संतों के परम आदर्श, उनके स्वामी हैं। उनका एक असाधारण नाम ब्रम्हण्यदेव भी है। वे ब्राम्हणों को ही अपना आराध्यदेव मानते हैं। उनका यह नाम उनके गुण के अनुरुप एवं उचित ही है। तभी तो भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं ही नारदजी के पाँव पखारे और उनका चरणामृत अपने सिर पर धारण किया । नरशिरोमणि नर के सखा सर्वदर्शी पुराणपुरुष भगवान नारायण ने शास्त्रोक्त विधि से देवर्षिशिरोमणि भगवान नारद की पूजा की। इसके बाद अमृत से भी मीठे किन्तु थोड़े शब्दों में उनका स्वागत-सत्कार किया और फिर कहा—‘प्रभो! आप तो स्वयं समग्र, ज्ञान, वैराग्य, धर्म, यश, श्री और ऐश्वर्य से पूर्ण हैं। आपकी हम क्या सेवा करें’ ?
देवर्षि नारद ने कहा—भगवन्! आप समस्त लोकों के एकमात्र स्वामी हैं। आपके लिये यह कोई नयी बात नहीं है कि आप अपने भक्तजनों से प्रेम करते हैं और दुष्टों को दण्ड देते हैं। परमयशस्वी प्रभो! आपने जगत् की स्थिति और रक्षा के द्वारा समस्त जीवों का कल्याण करने के लिये स्वेच्छा से अवतार ग्रहण किया है। भगवन्! यह बात हम भलीभाँति जानते हैं । यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आज मुझे आपके चरणकमलों के दर्शन हुए हैं। आपके चरणकमल सम्पूर्ण जनता को परम साम्य, मोक्ष देने में समर्थ हैं। जिनके ज्ञान की कोई सीमा ही नहीं हैं, वे ब्रम्हा, शंकर आदि सदा-सर्वदा अपने ह्रदय में उनका चिन्तन करते रहते हैं। वास्तव में वे श्रीचरण ही संसाररूप कुएँ में गिरे हुए लोगों को बाहर निकलने के लिये अवलम्बन हैं। आप ऐसी कृपा कीजिये कि आपके उन चरणकमलों की स्मृति सर्वदा बनी रहे और मैं चाहे जहाँ भी रहूँ, उसके ध्यान में तन्मय रहूँ ।
परीक्षित्! इसके बाद देवर्षि नारदजी योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान श्रीकृष्ण की योगमाया का रहस्य जानने के लिए उनकी दूसरी पत्नी के महल गये । वहाँ उन्होंने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिया और उद्धवजी के साथ चौसर खेल रहे हैं। वहाँ भी भगवान ने खड़े होकर उनका स्वागत किया, आसन पर बैठाया और विविध सामग्रियों द्वारा बड़ी भक्ति से उनकी अर्चा-पूजा की । इसके बाद भगवान ने नारदजी से अनजान की तरह पूछा—‘आप यहाँ कब पधारे! आप तो परिपूर्ण आत्माराम—आप्तकाम हैं और हम लोग हैं अपूर्ण। ऐसी अवस्था में भला हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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