श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 76 श्लोक 16-29
दशम स्कन्ध: षट्सप्ततितमोऽध्यायः(76) (उत्तरार्ध)
इसके बाद प्राचीन काल में जैसे देवताओं के साथ असुरों का घमासान युद्ध हुआ था वैसे ही शाल्व के सैनिकों और यदुवंशियों का युद्ध होने लगा। उसे देखकर लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते थे । प्रद्दुम्नजी ने अपने दिव्य अस्त्रों से क्षण भर में ही सौभपति शाल्व की सारी माया काट डाली; ठीक वैसे ही जैसे सूर्य अपनी प्रखर किरणों से रात्रि का अन्धकार मिटा देते हैं। प्रद्दुम्नजी के बाणों में सोने पंख एवं लोहे के फल लगे हुए थे। उनकी गाँठें जान नहीं पड़तीं थीं। उन्होंने ऐसे ही पचीस बाणों से शाल्व के सेनापति को घायल कर दिया । परममनस्वी प्रद्दुम्नजी ने सेनापति के साथ ही शाल्व को भी सौ बाण मारे, फिर प्रत्येक सैनिक को एक-एक और सारथि को दस-दस तथा वाहनों को तीन-तीन बाणों से घायल किया । महामना प्रद्दुम्नजी के इस अद्भुत और महान् कर्म को देखकर अपने एवं पराये—सभी सैनिक उनकी प्रशंसा करने लगे ।
परीक्षित्! मय दानव का बनाया हुआ शाल्व का वह विमान अत्यन्त मायामय था। वह इतना विचित्र था कि कभी अनेक रूपों में दीखता तो कभी एक रूप में, कभी दीखता तो कभी न भी दीखता। यदुवंशियों को इस बात का पता ही न चलता कि वह इस समय कहाँ है । वह कभी पृथ्वी पर आ जाता तो कभी आकाश में उड़ने लगता। कभी पहाड़ की चोटी पर चढ़ जाता तो कभी जल में तैरने लगता। वह अलात चक्र के समान—मानो कोई दुमुँही लुकारियों की बनेठी भाँज रहा हो—घूमता रहता था, एक क्षण के लिए भी कहीं ठहरता न था । शाल्व अपने विमान और सैनिकों के साथ जहाँ-जहाँ दिखायी पड़ता, वहीं-वहीँ यदुवंशी सेनापति बाणों की झड़ी लगा देते थे । उनके बाण सूर्य और अग्नि के समान जलते हुए तथा विषैले साँप की तरह असह होते थे। उनसे शाल्व का नागराकर विमान और सेना अत्यन्त पीड़ित हो गयी, यहाँ तक कि यदुवंशियों के बाणों से शाल्व स्वयं मूर्छित हो गया ।
परीक्षित्! शाल्व के सेनापतियों ने भी यदुवंशियों पर खूब शस्त्रों की वर्षा कर रखी थी, इससे वे अत्यन्त पीड़ित थे; परन्तु उन्होंने अपना-अपना मोर्चा छोड़ा नहीं। वे सोचते थे कि मरेंगे तो परलोक बनेगा और जीतेंगे तो विजय की प्राप्ति होगी । परीक्षित्! शाल्व के मन्त्री का नाम द्दुमान्, जिसे पहले प्रद्दुम्नजी ने पचीस बाण मारे थे। वह बहुत बली था। उसने झपटकर प्रद्दुम्नजी पर अपनी फौलादी गदा से बड़े जोर से प्रहार किया और ‘मार लिया, मार लिया’ कहकर गरजने लगा । परीक्षित्! गदा की चोट से शत्रुदमन प्रद्दुम्नजी का वक्षःस्थल फट-सा गया। दारुक का पुत्र उनका रथ हाँक रहा था। वह सारथि धर्म के अनुसार उन्हें रणभूमि से हटा ले गया । दो घडी में प्रद्दुम्नजी की मूर्च्छा टूटी। तब उन्होंने सारथि से कहा—‘सारथे! तूने यह बहुत बुरा किया। हाय, हाय! तू मुझे रणभूमि से हटा लाया ? सूत! हमने ऐसा कभी नहीं सुना कि हमारे वंश का कोई भी वीर रणभूमि छोड़कर अलग हट गया हो! यह कलंक का टीका तो मेरे ही सिर लगा। सचमुच सूत! तू कायल है, नपुंसक है ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-