श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 78 श्लोक 1-12
दशम स्कन्ध: अष्टसप्ततितमोऽध्यायः(78) (उत्तरार्ध)
दन्तवक्त्र और विदूरथ का उद्धार तथा तीर्थयात्र में बलरामजी के हाथ से सूतजी का वध
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! शिशुपाल, शाल्व और पौण्ड्रक के मारे जाने पर उनकी मित्रता का ऋण चुकाने के लिये मूर्ख दन्तवक्त्र अकेला ही पैदल युद्धभूमि में आ धमका। वह क्रोध के मारे आग-बबूला हो रहा था। शस्त्र के नाम पर उसके हाथ में एकमात्र गदा थी। परन्तु परीक्षित्! लोगों ने देखा, वह इतना शक्तिशाली है कि उसके पैरों कि धमक से पृथ्वी हिल रही है । भगवान श्रीकृष्ण ने जब उसे इस प्रकार आते देखा, तब झटपट हाथ में गदा लेकर वे रथ से कूद पड़े। फिर जैसे समुद्र के तट की भूमि उसके ज्वार-भाटे को आगे बढ़ने से रोक देती है, वैसे ही उन्होंने उसे रोक दिया । घमंड के नशे में चूर करुषनरेश दन्तवक्त्र ने गदा तानकर भगवान श्रीकृष्ण से कहा—‘बड़े सौभाग्य और आनन्द की बात है कि आज तुम मेरी आँखों के सामने पड़ गये । कृष्ण! तुम मेरे मामा के लड़के हो, इसलिये तुम्हें मारना तो नहीं चाहिये; परन्तु एक तो तुमने मेरे मित्रों को मार डाला है और दूसरे एक मुझे भी मारना चाहते हो। इसलिये मतिमन्द! आज मैं तुम्हें अपनी वज्रकर्कश गदा से चूर-चूर कर डालूँगा । मूर्ख! वैसे तो तुम मेरे सम्बन्धी हो, फिर भी हो शत्रु ही, जैसे अपने ही शरीर में रहने वाला कोई रोग हो! मैं अपने मित्रों से बड़ा प्रेम करता हूँ, उनका मुझ पर ऋण है। अब तुम्हें मारकर ही मैं उनके ऋण से उऋण हो सकता हूँ । जैसे महावत अंकुश से हाथी को घायल करता है, वैसे ही दन्तवक्त्र ने अपनी कड़वी बातों से श्रीकृष्ण को चोट पहुँचाने की चेष्टा की और फिर वह उनके सिर पर बड़े वेग से गदा मारकर सिंह के समान गरज उठा ।रणभूमि में गदा की चोट खाकर भी भगवान श्रीकृष्ण टस-से-मस नहीं हुए। उन्होंने अपनी बहुत बड़ी कौमोद की गदा सँभालकर उससे दन्तवक्त्र के वक्षःस्थल पर प्रहार किया । गदा की चोट से दन्तवक्त्र का कलेजा फट गया। वह मुँह से खून उगलने लगा। उसके बाल बिखर गये, भुजाएँ और पैर फ़ैल गये। निदान निष्प्राण होकर वह धरती पर गिर पड़ा । परीक्षित्! जैसा कि शिशुपाल की मृत्यु के समय हुआ था, सब प्राणियों के सामने ही दन्तवक्त्र के मृत शरीर से एक अत्यन्त सूक्ष्म ज्योति निकली और वह बड़ी विचित्र रीति से भगवान श्रीकृष्ण में समा गयी । दन्तवक्त्र के भाई नाम था विदूरथ। वह अपने भाई की मृत्यु से अत्यन्त शोकाकुल हो गया। अब वह क्रोध के मारे लम्बी-लम्बी साँस लेता हुआ हाथ में ढाल-तलवार लेकर भगवान श्रीकृष्ण को मार डालने की इच्छा से आया । राजेन्द्र! जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि अब वह प्रहार करना ही चाहता है, तब उन्होंने अपने छुरे के समान तीखी धार वाले चक्र से किरीट और कुण्डल के साथ उसका सिर धड़ से अलग कर दिया ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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