श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 89 श्लोक 15-30

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दशम स्कन्ध: एकोननवतितमोऽध्यायः(89) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोननवतितमोऽध्यायः श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद


भृगुजी का अनुभव सुनकर सभी ऋषियों-मुनियों को बड़ा विस्मय हुआ, उनका सन्देह दूर हो गया। तब से वे भगवान विष्णु को ही सर्वश्रेष्ठ मानने लगे; क्योंकि वे ही शान्ति और अभय के उद्गमस्थान हैं । भगवान विष्णु से ही साक्षात् धर्म, ज्ञान, वैराग्य, आठ प्रकार ऐश्वर्य और चित्त को शुद्ध करने वाला यश प्राप्त होता है । शान्त, समचित्त, अकिंचन और सबको अभय देने वाले साधु-मुनियों की वे ही एक मात्र परम गति हैं। ऐसा सारे शास्त्र कहते हैं । उनकी प्रिय मूर्ति है सत्व और इष्टदेव हैं ब्राम्हण। निष्काम, शान्त और निपुणबुद्धि (विवेकसम्पन्न) पुरुष उनका भजन करते हैं । भगवान की गुणमयी माया ने राक्षस, असुर और देवता—उनकी ये तीन मूर्तियाँ बना दी हैं। इनमें सत्वमयी देवमूर्ति ही उनकी प्राप्ति का साधन है। वे स्वयं ही समस्त पुरुषार्थस्वरुप हैं । श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! सरस्वती-तट के ऋषियों ने अपने लिये नहीं, मनुष्यों का संशय मिटाने के लिये ही ऐसी युक्ति रची थी। पुरुषोत्तम भगवान के चरणकमलों की सेवा करके उन्होंने उनका परमपद प्राप्त किया । सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियों! भगवान पुरुषोत्तम की यह कमनीय कीर्ति-कथा जन्म-मृत्युरूप संसार के भय को मिटाने वाली है। यह व्यासनन्दन भगवान श्रीशुकदेवजी के मुखारविन्द से निकली हुई सुरभिमयी मधुमयी सुधाधारा है। इस संसार के लंबे पथ का जो बटोही अपने कानों के दोनों से इसका निरन्तर पान करता रहता है, उसकी सारी थकावट, जो जगत् में इधर-उधर भटकने से होती है, दूर हो जाती है । श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक दिन की बात है, द्वारकापुरी में किसी ब्राम्हणी के गर्भ से एक पुत्र पैदा हुआ, परन्तु वह उसी समय पृथ्वी का स्पर्श होते ही मर गया । ब्राम्हण अपने बालक का मृत शरीर लेकर राजमहल के द्वार पर गया और वहाँ उसे रखकर अत्यन्त आतुरता और दुःखी मन से विलाप करता हुआ यह कहने लगा— ‘इसमें सन्देह नहीं कि ब्राम्हणद्रोही, धूर्त, कृपण और विषयी राजा के कर्म दोष से ही मेरे बालक की मृत्यु हुई है । जो राजा हिंसापरायण, दुःशील और अजितेन्द्रिय होता है, उसे राजा मानकर सेवा करने वाली प्रजा दरिद्र होकर दुःख-पर-दुःख भोगती रहती है और उसके सामने संकट-पर-संकट आते रहते हैं । परीक्षित्! इसी प्रकार अपने दूसरे और तीसरे बालक के पैदा होते ही मर जाने पर वह ब्राम्हण लड़के की लाश राजमहल के दरवाजे पर डाल गया और वही बात कह गया । नवें बालक के मरने पर जा वह वहाँ आया, तब उस समय भगवान श्रीकृष्ण के पास अर्जुन भी बैठे हुए थे। उन्होंने ब्राम्हण की बात सुनकर उससे कहा— ‘ब्रम्हन्! आपके निवासस्थान द्वारका में कोई धनुषधारी क्षत्रिय नहीं है क्या ? मालूम होता है कि ये यदुवंशी ब्रम्हाण हैं और प्रजापालन का परित्याग करके किसी यज्ञ में बैठे हुए हैं! जिनके राज्य में धन, स्त्री अथवा पुत्रों से वियुक्त होकर ब्राम्हण दुःखी होते हैं, वे क्षत्रिय नहीं हैं, क्षत्रिय के वेष में पेट पालने वाले नट हैं। उनका जीवन व्यर्थ है । भगवन्! मैं समझता हूँ कि आप स्त्री-पुरुष अपने पुत्रों की मृत्यु से दीन हो रहे हैं। मैं आपकी सन्तान की रक्षा करूँगा। यदि मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी न कर सका तो आग में कूदकर जल मरूँगा और इस प्रकार मेरे पाप का प्रायश्चित हो जायगा’।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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